कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
हीराबाई नाचेगी
यह तीसरी बार हुआ था और बिल्कुल उसी तरह जैसे पहले दो बार।
वैसे तो वे लोग इस बार भी बुलडोजर लाए थे, लेकिन वह दूर ही खड़ा रहा। दो
मोटर-ठेलों में आए सिपाही सबसे पहले जोर-जोर से चीखते और निरुद्देश्य लाठियां
पटकते हुए दौड़े। उनकी इस हरकत से मर्दो की तुलना में औरतों और बच्चों में
ज्यादा दहशत फैली। और इनसे भी ज्यादा डर गए वहां घूमनेवाले कुत्ते, सूअर, कुछ
मर्गियां, बकरियां और तोते। इस सबसे वहां एक जबरदस्त शोर मच गया। शोर ने
घबराहट और ज्यादा बढ़ा दी। लिहाजा मर्द, जो कम डरे थे, इस वक्त बस्ती उजाड़े
जाने के इस अभियान का विरोध करने के बजाय जरूरी सामान बचाने के लिए भागे।
सिपाहियों के पीछे लंबी लोहे की सलाखों और हथौड़ों से लैस कछ लोग बड़े
इत्मीनान से वहां बने छोटे-छोटे घर गिराने लगे। उन्हें गिराने में ज्यादा
मेहनत नहीं पड़ रही थी।
बस्ती में ज्यादातर मकान आम झोंपड़ियों से भी ज्यादा गिरी हालत की चीज थे।
उनकी छतों के बजाय बांसों और टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ियों के पिंजर पर पुराने टाट से
लेकर फटे हुए पालिथीन की चादर तक टूटी-सड़ी रस्सियों से बांध दी गई थी और ये
मेहनत और होशियारी से बनाई छतें हवा में उड़ न जाएं, इसलिए उन पर बहत-से
ईंट-पत्थर लाद दिए गए थे। ऐसे मकानों की दीवारें बनाना सबसे मश्किल काम था और
वह अक्सर लंबे अरसे में पूरा होता था; क्योंकि इन दीवारों के लिए धीरे-धीरे
करके दूर-दूर से ईंटें चुराकर लानी होती थीं।
यह घर ज्यादा बड़ी जरूरतें पूरी नहीं करता था। इसमें अक्सर रेंगकर या बहत
झुककर सिर्फ सोने या धूप और बारिश से बचने की कोशिश की जा सकती थी। बारिश में
आसपास का पानी अंदर भी न भर जाए, इसलिए नीचे का फर्श थोड़ा ऊंचा, एक चबूतरे
जैसा बना लिया जाता था। हालांकि उसमें छत होती थी, पर बारिश में भीगने से बच
पाना मुश्किल ही होता था। इन झोंपड़ियों के बीच एक सूअर या आदमी के चलने भर
की जगह छूटी रहती थी, जिसमें बहुत ज्यादा कीचड़ हो जाता था।
इस तरह के मकानोंवाली बस्ती उजाड़ने के काम में नगरपालिकावालों को ज्यादा
मेहनत नहीं करनी होती थी। लोहे की छड़ से उभारकर छत पर एक धक्का मार देने से
ही पूरा घर नंगा हो जाता था। इसके वाद हथौड़ेवाला आदमी बाकी बची छोटी-छोटी
दीवारों पर दो-तीन चोटें लगा देता था। इतने के बाद धीरे-धीरे साल-डेढ़ साल
में तैयार हुआ उनका घर मलबे और कूड़े में बदल जाता था।
करीब डेढ़ घंटे की इस कार्यवाही के बाद जब नगरपालिकावाले वहां से चले, तो
औरतों ने गालियां देनी शुरू कर दीं। कुछ एक ने गुस्से में आकर जाते हुए
सिपाहियों के पीछे ईंटों के टुकड़े भी फेंके। वे चीख-चीख-कर रोई भी, फिर
तुरंत ही वे मलबे को खोदने लगीं। बहुत-सा सामान ऐसा था, जो पिचक जाने के
बावजूद बचाया जा सकता था, जैसे मैली काली पतीलियां, लोहे या प्लास्टिक के
डिव्वे, या कनस्तर।
नेतराम कुम्हार की बीवी जोर-जोर से रोने लगी थी, क्योंकि झोपड़ी के साथ ही
उसके ज्यादातर बर्तन चूर-चूर हो गए थे।
सड़क की तरफ लकड़ी के कुछ डिब्बे जैसे भी कुछ लोगों ने खड़े कर लिए थे,
जिनमें छोटी-छोटी दुकानें थी। पान-बीड़ी की दुकान, स्कूटर मरम्मत या सब्जी की
दुकान। एक नन्हा-सा कारखाना, छाते और सूटकेस की मरम्मत का। एक मोची और एक
हज्जाम। एक बिजली की सजावट वाले मैकेनिक का खोखा।
डेढ़ घंटे की उस कार्यवाही के बाद अब वहां का नजारा बिल्कुल ही दूसरा हो गया
था। जमीन के जितने हिस्से में वे झोंपड़ियां और खोखे थे, वह हिस्सा खासा
लंबा-चौड़ा मैदान लगने लगा था। उस मैदान में ईंट, पत्थरों, बांसों, चिथड़ों
के ढेर अब इस तरह छितराए हुए पड़े थे, जैसे किसी युद्ध के बाद टूटे रथ, मरे
घोड़े और खेत रहे सिपाही विखरे हों।, सहसा वहां रहनेवाले हर प्राणी का कद
जैसे लंबा हो गया।
पुलिसवालों की ललकार के बाद, जो बच्चे डरकर चीखते हुए दूर तक भागते चले गए
थे, वे खजूर के पेड़ों के बीच से इस सारी कार्यवाही को देखते रहे थे। पुलिस
और नगरपालिका के दस्तों के वापस जाने के बाद वे फिर लौट आए। उनकी अपनी
प्रतिक्रिया अपने वाल्दैन का अनुकरण ही ज्यादा थी। वे बच्चे रोने लगे, जिनके
मां-बाप रो रहे थे। कुछ बच्चे अपनी मांओं की तरह पुलिस की तरफ हवा में पत्थर
फेंककर अपना गुस्सा उतारने लगे। यह प्रक्रिया ज्यादा देर नहीं चली।
नन्दू बढ़ई का छोटा बेटा मिर्ची चिल्लाया, “अबे ओए परमुए, तेरी गेंद! तेरी
गेंद मिल गई बे!"
"कहां?" परम् चौंक गया। वह खुद आसपास के कूड़े से ऐसे ही कोई चीज खोज रहा था।
वह एक उम्दा, वजनी क्रिकेटवाली गेंद थी, जो परमू करीब, डेढ़ बरस पहले लाया
था। खरीदकर नहीं, सरकारी अफसरोंवाली कॉलोनी के पार्क से। चूंकि कई दिन से
टी.वी. और रेडियो किसी क्रिकेट खेल का प्रसारण कर रहे थे, इसलिए लगभग हर जगह,
हर बच्चा इसी खेल में मशगूल था। कुछ बच्चे, सस्ती प्लास्टिकवाली गेंद उतने ही
सस्ते वल्ले के साथ ईंटों के ढेर को विकेट बनाकर खेलते थे, तो कुछ बच्चे
बाकायदा पेशेवर खिलाड़ियोंवाला सामान खरीद लाए थे। उस सामान में बच्चों के कद
से बहुत भारी, उजले पैड और दस्ताने भी थे। उन्हें जरूर खेल की सारी बारीकियां
आती होंगी, क्योंकि उन्होंने रेफरी और मैनेजर तक नियुक्त कर रखे थे। इन
बच्चों का खेल जिस पार्क में हो रहा था, उसके चारों तरफ परमू जैसे कुछ बच्चे
खड़े थे। गेंद जब कभी-कभी पार्क से बाहर आ जाती थी, तो इन्हीं में से कोई एक
बच्चा उसे एहतियात से उठाकर वापस कर देता था। एक बार गेंद जब परमू की तरफ आई,
तो उसने किसी कुशल खिलाड़ी की तरह रोकना चाहा, पर वह ऊंची ज्यादा थी। गेंद के
गिरने की हल्की झलक उसे मिली थी, पर गेंद दिखी कहीं नहीं। खेलनेवाले बच्चों
ने भी उसे खोजा, पर वह मिली किसी को नहीं। हारकर बच्चे दुसरी गेंद ले आए।
परम् बाकी खेल देखते हुए भी उसी खोई गेंद के बारे में सोचता रहा-आखिर वह गायब
कहां हो गई, हो सकती है?
खेल देखते-देखते अनासाय ही उसकी निगाहें गेंद खोजने लगतीं। आखिर उसने गेंद
देख ही ली थी। वह पास ही बन रहे मकान के सामने जमा इंटों के दो चट्टों के बीच
थी। परमू ने तुरंत उधर से अपनी निगाह हटा ली।
उस गेंद को वह उसी वक्त नहीं लाया। रात जब कॉलोनी के लगभग सारे बच्चे टी.वी
देखने में मशगूल थे, परमू वह गेंद निकाल लाया था।
समूची बस्ती में इतनी उम्दा और नायाब गेंद किसी के पास नहीं थी। बहुत देर तक
वे लोग आपस में मिलकर उसका बारीकी से मुआयना करते रहे। इससे पहले भी उन्होंने
बहुत-सी गेंदें देखी थीं और उनसे खेले भी थे। फज्जे ने तो फागज के एक गोले पर
चिथड़े और सुतलियां लपेटकर ही गेंद तैयार कर ली थी। आसपास फैली बहत-सी
कॉलोनियों में कुछ खिलौने उन्हें मिल जाते थे, जैसे गई-गडियां. टिन की मोटरें
और गेंद। रबर की कुछ खोखली गेंदें फटी हुई होती थीं और ऊपर से साबुत होने का
भ्रम पैदा करती थीं। ऐसी गेंदों को ये लोग तुरंत फाड़ देते थे, ताकि उन्हें
दोबारा धोखा न हो।
इस बार जो गेंद मिली थी, वह अद्भुत ही थी। उसे बहुत बार उन लोगों ने छ कर
देखा। गगन ने जोश में आकर उसे उछालकर देखना चाहा, तो परम उससे लगभग लड़ ही
बैठा था।
इस गेंद को खेलना भी एक समस्या थी। किसी टूटे तख्ते से या बांस के टुकड़े से
खेलना इस गेंद की बेइज्जती ही थी, इसलिए परमू और उसके साथियों ने मिर्ची से
दोस्ती की थी। मिर्ची नन्दू वढ़ई का सबसे छोटा वेटा था और बाप के साथ
चारपाइयों के पाये बनाने के बजाय स्कूटर मैकेनिक लतीफ के साथ लगा रहता था।
रुखानी-बसूले के बजाय रिंच और पेचकस में उसे एक खास तरह की अंगरेजियत महसूस
होती थी। इसीलिए वह बस्ती के बाकी बच्चों से ज्यादा मिलता-जुलता भी नहीं था।
मिर्ची को राजी करने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुई थी। उसके बाप ने उन लोगों
के लिए एक अच्छा-सा वल्ला बना दिया था। पर पतले तख्ते से जो बल्ला उसने बनाया
था, वह असली गेंद के साथ टकराकर जल्दी कहीं बीच से फट गया। तब वे लोग एक बांस
के टुकड़े से गेंद खेलते रहे थे। शायद यह बांस का कुसूर रहा हो या चारों तरफ
कबाड़ की तरह फैली झोंपड़ियों का कि जल्दी ही वह गेंद गायब हो गई। एक जोरदार
प्रहर के बाद जो वह उछली, तो पता ही नहीं चला, कहां चली गई। गेंद की खोज में
परमू और उसके साथी कई झोंपड़ियों की छतों पर चढ़े और तोड़ देने के अपराध में
खासी गालियां खाई। कई रोज परमू जगह-जगह उसे खोजता रहा था। उससे ज्यादा लगन से
उसके दूसरे साथियों ने उसकी तलाश की थी। पर गेंद नहीं मिलनी थी, तो नहीं ही
मिली।
बारिश और धूप में बदरंग वही गेंद हाथ में लिए हुए मिर्ची खड़ा था। परमू ने
देखा और झपटकर गेंद हाथ में ले ली-वही है। उसने उसका मैल अपने कपड़ों पर
रगड़ा, पर वह साफ नहीं हुई। जो भी हो, गेंद तो मिल गई। अनंतराम चौरसिया का
पान-सिगरेटवाला खोखा पहले ही पुराना और जर्जर था। नगरपालिकावालों की तोड़फोड़
से एकदम पसर गया था। उसका एक पाया उठाकर परमू ने तोला-इससे खेला जा सकता है।
यह जल्दी फटेगा भी नहीं।
परमू ने जरूरत से ज्यादा उत्साह से अपने बाकी दोस्तों को इकट्ठा करना शुरू कर
दिया। उस दुर्लभ गेंद के दोबारा मिलने की बात ने हर किसी में एक नई उत्सुकता
पैदा कर दी ओर जल्दी ही वे नगरपालिका की तोड़-फोड़ भूल गए। अपने परिवारों को
रोते-झीखते और मलबे से उलझता छोड़कर वे बस्ती के पीछे की तरफ नाले से सटी उस
खाली जगह पर आ खड़े हुए, जहां धोबी अपने कपड़े सुखाया करते थे। आज के इस ऊधम
के बाद धोबी भी वहां से गायब थे। उनके क्रिकेट खेलने के लिए इससे उम्दा जगह
उन्हें आज तक नहीं मिली थी।
अभी वे क्रिकेट खेलने की तैयारी कर ही रहे थे कि एक ऊंची चीख, जैसे कोई किसी
सूअर को मारने की कोशिश कर रहा हो, गूंज गई। वह चीख रुकी नहीं। पान-बीड़ी के
खोखेवाले की मां आ गई थी और वह छाती पीट-पीटकर रोती हुई बहुत तेज आवाज में
नगरपालिकावालों को कोस रही थी। उसकी इस आवाज से शह पाकर दूसरी औरतों ने भी नए
सिरे में चीखना शुरू कर दिया।
क्रिकेट का खेल थोड़ी देर के लिए रुक गया, क्योंकि हर बच्चे को लगा,
चीखनेवाली औरतों में उसकी भी मां शामिल है।
इसी बीच सहसा चिल्लाकर फोहश गालियां देते हुए मजीद ने छोटे को धक्का दिया।
छोटे का पेट बचपन से ही बेढंगे तरीके से बढ गया था। धक्के से लड़खड़ाकर वह
लुढ़क गया। इस पर वह भी उतनी ही भद्दी गालियां बकने लगा।
गेंद की महिमा से थोड़ा गौरवान्वित परमू किसी बुजुर्ग की तरह वैसी गालियां
देकर चीखा-"क्या है बे? उसको धक्का क्यों मार दिया?"
मगर इस झगड़े में बाकी बच्चे शामिल नहीं हुए, बल्कि भुनभुनाते हुए वे खुद एक
हद तक छोटे की आलोचना करने लगे। इस बात ने परम् को चकित कर दिया। वह बौखलाकर
बाकी बच्चों का मुंह देखने लगा-“अबे तो बात क्या है?"
जवाब में मजीद और ज्यादा चुनिंदा गालियां बकने लगा।
बात सचमुच गंभीर थी।
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