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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


बहुत हारा हुआ वह भीड़ में शामिल हुआ और फिर लोगों की नजर बचाकर पीछे की तरफ दुबक गया, इस तरह कि फोटो खिंचे तो वह दिखाई ही न दे। उसकी इस हरकत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इस बात पर वह और ज्यादा उदास हो गया।

वहीं फोटो खिंचने के बाद यह घोषणा हुई थी कि सरकार ने मृतकों के परिवार को पांच-पांच हजार रुपए नकद देने का फैसला किया है।

मरनेवालों को! हरी का मुंह एकाएक कड़वा हो गया। उसने देखा अपनी उंगली विज्ञापित करते हुए नोहरी एक सिपाही से पूछने लगा था, "भैया, जिन्हें चोट लगी है उनको सरकार क्या देगी?"

“धतूरा देगी। किनारे हट!" सिपाही ने घुड़का।

भीड से चुपचाप बाहर आकर हरी कुकरौंधे की खोज में चल पड़ा। छल्ली की हालत जल्दी सुधरेगी नहीं। घावों पर कुकरौधे का रस बार-बार लगाना होगा।

उन बेहद हरे, हल्की-हल्की गंधवाले नरम पत्तों की गड्डी लिए हए वापस आया तो छल्ली कराह रही थी और करवट बदलने की कोशिश कर रही थी।

“छल्ली, कैसी तबीयत है रे?" पत्तों की गड्डी जमीन पर रखकर हरी उसके सिरहाने बैठ गया।

जवाब में छल्ली शायद कराही या उसने कुछ कहने की कोशिश की। बेचैनी, दर्द और दःख हरी के कंठ में बलगम की तरह आ लिपटा। उसने नाहक ही कुछ घंटा। उसने देखा छल्ली ने करवट बदलने की एक और कोशिश की और सहसा उसका चेहरा राख की तरह सफेद हो गया और दांत इस बुरी तरह भिंच गए कि आंखों से लेकर गर्दन तक गहरी शिकन पड़ गई। लगा शरीर ऐंठकर टूट जाएगा। देखते-देखते भिंची हई आंखों की कोरों से आंसू निकलकर कान पर लुढ़क गए।

"छल्ली, बहुत दर्द है? कहां दर्द है?" हरी ने और झुककर पूछा।

छल्ली कुछ नहीं बोली। हरी ने फिर कहा, "मैं कुकरौंधा ले आया हूं। दिन में कई बार गर्म-गर्म निचोड़ दूंगा तो जल्दी ठीक हो जाएगी, दर्द भी दबेगा।"

हिम्मत करके उसने छल्ली के कंधे पर लिपटी पट्टी खोलनी शुरू की। छल्ली सिर्फ दांत ही भींचती रही, चीखी नहीं। शायद चीखने की शक्ति बची ही नहीं थी। पट्टी का आखिरी सिरा रूई सहित जख्म पर बहुत बुरी तरह चिपक गया था। उसे आहिस्ता-आहिस्ता छुड़ाने की कोशिश में दर्द इतना बढ़ गया कि छल्ली छटपटाने लगी।

हरी रुक गया। थोड़ी देर शायद दर्द थमने का इंतजार करता रहा, उसके बाद मन मजबूत करके उसने पट्टी खींच ली। पट्टी उखड़ने की ऐसी आवाज हुई जैसे खाल नोचकर खींच ली गई हो। शायद छल्ली को जबर्दस्त पीड़ा हुई होगी क्योंकि वह बिस्तर पर लगभग उछली और छटपटाने लगी। हरी ने धीरे से सहारा देकर उसे सांत्वना देनी चाही। तभी उसने देखा, खुल गए जख्म से तेजी से खून नीचे टपकने लगा। वह घबरा गया। लगभग जड़ित, रक्त के उस घातक प्रवाह को देखता रहा। अनुमान से ही उसने जान लिया कि अगर रक्त बहना रोका नहीं गया तो आखिरी बूंद तक वह बहता ही जाएगा।

छल्ली पर फिर बेहोशी की चादर छा गई। रक्त उसी गति से बहता रहा।

छल्ली अब नहीं बचेगी। खून बहना रुका नहीं तो कोई नहीं बचा सकेगा। छल्ली मर जाएगी। एक उलझन-भरी बेचैनी हरी ने महसूस की-बल्कि उस मृत्यु की कल्पना में एक वीभत्स ग्लानि उसे महसूस हुई। जख्म की ओर उसने हाथ की पट्टी बढ़ाई और फिर जैसे वह बेतरह भयभीत हो गया हो इस तरह कांपता हुआ उठा, घर से बाहर आया और एक तरफ दौड़ने लगा।

बहुत देर तक और पूरी शक्ति-भर वह दौड़ता रहा। गांव पीछे छूट गया। खेत निकल गए। फिर उजाड़ मैदान भी पीछे छूट गया।

कंटीली झाड़ियों और बारिश से कटी जमीन की दारारोंवाले इलाके तक पहुंचते-पहुंचत वह थककर लड़खड़ाने लगा। वह तब तक भागता ही रहा जब तक उसके पैरों ने उसका साथ देना एकदम बंद नहीं कर दिया। सूरज बिल्कुल उतर आया था और रात की धुंध बहुत पहले से ही घुमड़ने लगी थी। अब क्या समय रहते वापस लौटा जा सकेगा? वह जहां लडखड़ाकर गिरा वहां सिरसे की अकड़ी हुई जड़ें इस तरह उभरी दीख रही थीं जैसे किसी मृत्यु की घाटी में बहुत-से सांप सूखकर जम गए हों।

बुरी तरह हांफते हुए उसने पीछे पलटकर देखा। गांव बहुत दूर, बहुत पीछे छूट गया था। उसके हाथ में खून लगी पट्टी अभी उलझी थी।

छल्ली?...अब? अब क्या वह कुछ कर पाएगा?...हरी हाथ की मैली पट्टी घूरता रहा। उसे ताज्जुब हुआ कि उसे रोना क्यों नहीं आ रहा। और तभी जैसे उसकी छाती फोड़कर रुलाई उभरी। आसमान पर सूखे रक्त की शिराओं की तरह छपे कंकाल दरख्तों को घूरता हुआ वह जोर-जोर से रोने लगा।

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