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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


तभी ट्रेन के इंजन की सीटी सुनाई पड़ी।
 
"अबे रेलगाड़ी आ रही है रे!" किसी ने आवाज दी।

“यही चिल्ला रही है ससुरी, ये मालगाड़ी।" हरी ने ललकारकर उत्साह से कहा।

"चल खिसक! अरे खिसक!" मालगाड़ी के साथ-साथ चल रहे कुछ लोग बेजान खड़ी मालगाड़ी को उकसाने का मजा लेने लगे।

सिर्फ एक सीटी की आवाज से उन लोगों की नीरस और उबाऊ यात्रा में एक किस्म की जान पड़ गई।

"अबे धक्का दे धक्का!" किसी ने अंधेरे को चीरकर आगे आते हुए आवाज दी।

जो लोग मालगाड़ी से सटे हुए चल रहे थे वे सचमुच ही उसे धक्का देने लगे। "लगा दे जोर भैया!"

लोगों ने नारा लगाया-"जोर लगा के हइसा!"

वे लोग अपनी-अपनी पोटलियां संभालकर ट्रेन को धकेलने के लिए जोर लगाने लगे। उनकी ताल पर और लोगों ने भी जोर लगाना शुरू कर दिया।

“धत्तेरे की!" बीच से दो-तीन निराश हुए लोगों ने डिब्बे पर घूंसे पटक दिए।

“अबे अड़ियल है। हुला दे हूला।" किसी ने आवाज देकर अपने डंडे से डिब्बे को पीटा। डिब्बे के लोहे से बड़ी वेहूदा आवाज उभरकर अंधेरे में गूंज गई।

डिब्बे के लोहे से उठी उस आवाज के साथ ही कई लोगों का तीखा चीत्कार उठा।

एक क्षण ठिठककर लोगों ने वह चीत्कार सुना, फिर उन्हें लगा धुंध और अंधेरे में आगेवाले लोगों ने भी शायद मालगाड़ी धकेलने का खेल शुरू कर दिया है। उन्होंने लपककर मालगाड़ी धकेलते हुए फिर नारा लगाया-“ओ भैया जोर लगा के...!"

नारा पूरा नहीं हुआ। पलक झपकते अंधेरे को रौंदकर शोर मचाता हुआ एक काला साया पागलों की तरह चीखता आया और जब तक कोई कुछ समझ पाए पटरी पर खड़े लोगों के चिथड़े उड़ाता हुआ आगे निकल गया।

वह सिर्फ एक इंजन था। उसके पीछे गाड़ी नहीं थी। इंजन चलानेवाले को दुर्घटना का पता लग गया था लेकिन जोर-जोर से सीटी बजाने के अलावा और कुछ कर पाना उसके बस में नहीं था।

इंजन से सहसा कितने और कौन लोग कुचले यह उस अंधेरे में जल्दी कोई नहीं जान पाया, लेकिन बचे हुए लोगों को भी वह एहसास तुरंत हो गया कि वहां भारी दुर्घटना हो गई है। लगभग एक साथ वे सभी चीखे। लगातार चीखते रहे। तब तक चीखते रहे जब तक उनके गले भर्रा नहीं गए।

स्टेशन वहां से थोड़ी दूर था। लोगों का वह चीत्कार स्टेशन पर समझ में किसी को नहीं आया। कई लोगों को लगा मेले से लौटते लोगों का जयकारा है। वे व्यस्त हो गए।

लंबे अंतराल के बाद और वह भी टूट-टूटकर दुर्घटना की खबर स्टेशन तक पहुंची। एक सिपाही और लालटेनों के साथ दो खलासी साथ लेकर सहायक स्टेशन मास्टर धुंध को धकियाता हुआ जब वहां पहुंचा तो एक क्षण के लिए समझ नहीं पाया कि वह कहां पहुंच गया है।

अपने परिचितों के नाम लेकर चीखते रोते लोगों का हुजूम ट्रेन की पटरियों पर जैसे छीना-झपटी-सी कर रहा था। अंधेरे और पटरियों पर टूटती भीड़ में दुर्घटना को समझ पाना आसान नहीं था।

"अरे क्या हुआ भाई?" थोड़ी ऊंची आवाज में पूछता हुआ सहायक स्टेशन मास्टर भीड़ की तरफ बढ़ा। तभी उसका पैर किसी मुलायम-सी चीज पर पड़ा। उसे लगा पैरों के नीचे कोई असाधारण चीज आ गई है। दो कदम आगे निकल जाने के बाजवजूद वह पीछे घूमा और खलासी से बोला, “देखो तो क्या था यहां रे!

खलासी ने लालटेन नीचे पटरियों की तरफ घुमाई। पटरियों के बीचोबीच पत्थर के टुकड़ों पर किसी बच्चे का कलाई के पास से कटा हुआ हाथ पड़ा था। उसमें खून कहीं नहीं था। लग रहा था जैसे किसी जादूगर ने रहस्यमय जादू से हाथ बनाकर

वहां डाल दिया हो। लेकिन हाथ के पास ही पटरियों से सटा जो चिथड़ों के ढेर जैसा था उससे छितराया खून बिल्कुल ताजा था। लाश के इतने वीभत्स दृश्य को स्टेशन मास्टर इस तरह घूरता रहा जैसे कुछ पहचानने की कोशिश कर रहा हो। देखते ही देखते उसके चेहरे पर पसीना आया, जबड़ों में तनाव पैदा हुआ और उसे उलटी हो आई। वह किसी बीमार की तरह खड़े-खड़े ही डगमगाने लगा।

सिपाही अपनी टॉर्च इधर-उधर लहराता हुआ ऊंची आवाज में बोला, “यहां तो सत्यानास हो गया लगता है।"

उत्तर पाने या स्टेशन मास्टर की हालत जानने के लिए सिपाही रुका नहीं। टॉर्च की रोशनी से धुंध को झाड़ियों की तरह काटता हुआ वह पटरियों के किनारे-किनारे आगे बढ़ता गया।

पटरियों पर और आसपास आगे और ज्यादा खून फैला हुआ था। परिचितों को खोजते लोगों के पैरों के नीचे लोगों के कटे हुए हिस्से इस तरह बिखरे दिखाई दे रहे थे जैसे किसी ने मशीन से काटकर उन्हें उछाल दिया हो।

टॉर्च की उसी रोशनी में पटरियों के बीचोबीच निश्चेष्ट पड़ी छल्ली को हरी ने पहचाना।

"अरे भैया, अरे ओ!" हरी ने टॉर्चवाले को रोकना चाहा। वह चाहता था रोशनी वहां थोड़ी देर और ठहरे और वह देख सके कि छल्ली के साथ क्या कुछ घटा है।

सिपाही को कुछ भी सुनने की इच्छा नहीं थी। वह टॉर्च इधर-उधर फेंकता हुआ सिर्फ आगे बढ़ता चला जा रहा था।

टॉर्च जाने के बाद अंधेरा पहले से भी ज्यादा गहरा हो गया। हरी ने छल्ली को हिलाया। पहले धीरे से फिर जोर से। उसमें हरकत नहीं हुई। हरी के हाथ में कुछ चिकना गीला-सा लिपट गया। अब हरी ने गला फाड़ कर चीखते हुए उसे हिलाया. "अरे छल्ली रे!"

उसके आसपास हर कोई पागलों की तरह चीखे जा रहा था। हरी जानता था कि ऐसी हालत में किसी दूसरे से मदद की कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती।

लोगों के शोर और डरावनी चीखों की वजह से उस भारी और ठोस अंधेरे में एक दहशत पैदा हो गई थी। हरी घबराहट में बार-बार छल्ली को हिलाने की कोशिश कर रहा था। रेल के इंजन की एक धुंधली आकृति-सी उसने देखी थी। भाप की इतनी तीखी आवाज न हुई होती तो शायद वह जान भी न पाता कि वहां से क्या गुजर गया। उस इंजन से बहुत-से लोग मरे या जख्मी हुए हैं यह उसने अनुमान लगा लिया। छल्ली पटरियों के बीचोबीच पड़ी थी। इंजन से वह कटी नहीं है यह विश्वास करने के लिए उसने अंधेरे में उसके शरीर को टटोला।।

पहली बार टटोलने पर खासा संतुष्ट हुआ कि छल्ली का शरीर सही-सलामत था। जाने क्यों उसने दुवारा अपने को आश्वस्त करना चाहा। थोड़ी सावधानी से उसने इस बार उसका सारा शरीर टटोला। हाथ अभी घुटने के नीचे पहुंचा ही था कि उसे एक जवर्दस्त धक्का लगा। देर तक वहां दुवारा हाथ ले जाने का साहस नहीं हुआ। पिंडली के ऊपर मांस से वाहर एक मोटी नोकदार मेख जैसी लगी हुई थी। मगर वह मेख नहीं थी। टखने की हड्डी टूटकर पेशियों को फाड़ती हुई बाहर निकल आई थी।

हरी ने बौखलाकर नाहक ही इधर-उधर किसी मदद के लिए देखा, फिर खुद ही किसी तरह छल्ली के वेहोश शरीर को उठाकर पटरियों के दूसरी तरफ उतर गया।

टॉर्चवाला सिपाही दुबारा उसी तरफ वापस आया। वापसी में उसने टॉर्च जला जरूर रखी थी लेकिन देख सामने रहा था, नीचे नहीं। वह कुछ इस तरह चल रहा था जैसे बहुत ज्यादा मेहनत करके लौटा हो और पांव घसीटने की ताकत भी नहीं रह गई हो।

सहायक स्टेशन मास्टर अपने कमरे में आया और किनारे पड़ी बेंच पर लगभग गिरकर चित लेट गया।

“अबे पानी ला जल्दी से।" साथ आए खलासी ने लालटेन मेज पर रखकर दूसरे खलासी से कहा।

दूसरा खलासी पानी लाने भागा। स्टेशन के दो-तीन कर्मचारी इस बीच वहां आ गए, “क्या हो गया बाबू को?"

स्टेशन मास्टर हल्के से खांसने की कोशिश करने लगा। फिर उसके पेट पर झटका-सा उभरा। वह तेजी से बेंच से लटक गया। उसे फिर उलटी हुई। खलासी पानी ले आया था।

"तबीयत खराब हो गई क्यों?" कर्मचारी ने फिर पूछा।

खलासी स्टेशन मास्टर का मुंह धुलाता हुआ बोला, “अरे बाबू, देखते नहीं बनता। छाती फट जाए देखकर। सत्यानाश हो गया है।"

"मगर हुआ क्या?" दूसरे बाबू ने पूछा।

"एक्सीडेंट! एक्सीडेंट!" पहला खलासी स्टेशन मास्टर का कोट उतारने लगा।

"एक्सीडेंट? किस गाड़ी का?"

खलासी ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया। वह स्टेशन मास्टर का कोट उतारता रहा।

बाबू खीझ गया, “अबे बताता क्यों नहीं, किस गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ है?"

"गाड़ी का क्या, वहां खुद देख आओ। कुहराम मचा हुआ है।" दूसरे खलासी ने कहा और फर्श साफ करने वाले को आवाज देता हुआ बाहर चला गया।

स्टेशन पर खबर जल्दी ही फैल गई। लोग जाने कहां-कहां से निकलकर दुर्घटनावाली जगह की तरफ दौड़ने लगे।

जिस वक्त वहां अस्पताल की मदद पहुंची, दिन चढ़ आया था और कुहरा फूटकर इस तरह ऊपर उठ रहा था जैसे आग लगकर बुझ चुकी हो और सुलगते अंगारों से धुआं उठ रहा हो।

धायलों और लाशों में से बहुत थोड़ी ही ऐसी थीं जिन्हें समूचा उठाया जा सकता था। शरीर के कटे-बिखरे हिस्से को समेटना खासा परेशान करने वाला काम था।

अस्पतालवालों के लाशें उठाने के काम में जुटते ही वहां लोगों का चीत्कार फिर सुनाई देने लगा। लाशों से लिपटे हुए लोग एक बार फिर खुलकर रो लेना चाहते थे।

पुलिस की गाड़ियों में इतनी जगह नहीं थी कि घायलों और लाशों के अलावा उनके साथी-संबंधी भी बैठ सकें। गाड़ियां रवाना होने के बाद एक बार और ऊंची आवाज में रोकर पुलिस के सिपाहियों के साथ लोगों का काफिला शहर की तरफ चल दिया।

थोड़ी दूर निकल जाने के बाद हरी को कंधे पर लटकी चने की पोटली याद आई। वह वहां नहीं थी। दुर्घटना इतनी अप्रत्याशित थी कि उस बीच चने की पोटली का खयाल ही नहीं आया। वहां बेहद अंधेरा भी था। पोटली कहां गिरी होगी यह जानना भी मुश्किल ही था। जहां पर था वहां मालगाड़ी के डिब्बे थे।

उसे चने के इस खयाल पर थोड़ी-सी शर्मिंदगी भी महसूस हुई। छल्ली को इस हालत में छोड़कर जाना उसे गलत लगा।

लेकिन थोड़ा चलने के बाद उसने सोचा, चने की वह पोटली खोज लेने में हर्ज नहीं है। आखिर छल्ली अब अस्पताल तो जा ही रही है। वहां उसे रहना पड़ सकता है। चने खाने के काम तो आ ही सकते हैं।

हरी पलटकर वापस चल दिया। उसके इस तरह लौटने पर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया।

पूरा स्टेशन पार करने के बाद वह अनुमान से वहां आया जहां उसके अनुसार मालगाड़ी होनी चाहिए थी। वह वहां नहीं थी। जाने कब वह वहां से चली गई थी। वह बौखला गया। उस मालगाड़ी के वहां न होने से वह समूचा स्टेशन अजनबी हो गया। कुहरा छंट गया था और पटरियों के दूर तक बिछे जाल के आसपास मैली रजाइयों में लिपटे दरख्त मौज में खड़े थे।

गनीमत है कि दुर्घटना की जगह उसे मिल गई। वह स्टेशन के दूसरी तरफ थी। उधर अब जबर्दस्त भीड़ हो गई थी और पुलिसवाले डंडे हिला-हिलाकर लोगों को दूर रखने की कोशिश कर रहे थे। भीड़ में घुसने में उसे परेशानी नहीं हुई। उसने सोचा एक सिरे से खोजना शुरू करेगा। अंगोछे में बंधी पोटली उसने काफी दूर से ही पहचान ली।

भीड़ से निकलकर दो सिपाहियों से कतराता हुआ वह पोटली की तरफ बढ़ा।

तभी दो-तीन सिपाही एक साथ चिल्लाए, “एई, किधर जाता है?"

"जी हुजूर!" वह ठिठककर घूमा।

"अवे भाग उधर से!" सिपाहियों ने लाठी हिलाते हुए उसे ललकारा।

"वो...वो..."

हरी ने कहना चाहा कि वह अपनी पोटली उठाने आया है लेकिन सिपाहियों की आक्रामकता से घबराकर वह पीछे हट आया।

अस्पताल से वापस घर तक की उसकी यात्रा काफी सुखद थी। बड़ी-बड़ी मोटरों में अस्पताल से छुट्टी पाए मरीजों के साथ उनके संबंधियों को भी घर लौटने की छूट मिल गई थी। इस यात्रा के लिए उसे पैसे भी नहीं देने पड़े थे।

छल्ली बहुत तकलीफ महसूस कर रही थी, लेकिन वह अब बोल सकती थी। उठकर बैठ सकती थी। सहारे से थोड़ा-सा चल भी सकती थी। हरी ने अस्पताल से मिली गोलियां रख दी और सबसे पहले उसे फिटकरी पिलाई थी। इसके बाद अपनी समूची परंपरा याद करते हुए वे इलाज शुरू कर दिए थे जिनसे जीने की उम्मीद बंधती थी और मर जाने पर नियति याद आया करती थी।

दो रोज छल्ली कुछ ठीक रही फिर उसके जख्मों में बेतरह दर्द शुरू हो गया। बीच-बीच में उसे इतना तेज बुखार आ जाता था कि वह लगभग बेहोश हो जाती थी।

चाहकर भी भीहरी ने अस्पताल से मिली दवाएं नहीं दी थीं। उनसे बड़ी गर्मी हो जाती है शरीर में, उसने सुन रखा था। विलायती दवाइयों के लिए गिजा चाहिए। अंगूर, सेब, अनार, संतरे और मक्खन तो होना ही चाहिए। इसलिए सबसे अच्छा है तुलसी की पत्ती उबालकर पीते रहो और कुकरौंधे का इस्तेमाल करते जाओ।

जिस दिन गांव में मुख्यमंत्रीजी मृतकों के परिवारों से मिलने आए, छल्ली बुखार में बेहोश पड़ी थी वरना वह उसे भी ले जाता। सांवलदास की कलाई टूट गई थी। वह मिलने पहुंचा तो मुख्यमंत्रीजी ने अपनी माला उसे पहना दी थी। उसके साथ फोटो भी खिंचवाया था। नोहरी भी हरी के साथ उस दुर्घटना में था। उसकी बाएं हाथ की छोटी उंगली टूट गई थी। उसमें मोटे कपड़े का गट्ठर-सा लपेटे नोहरी ने भी बड़ी खुश से फोटो खिंचाया था।

छल्ली उसी दिन बहुत ज्यादा बीमार हो गई थी। बहुत देर हरी उसके पास बैठा रहा। उसे धीरे-धीरे आवाजें भी दीं। सिर्फ एक बार बहुत नामालूम ढंग से वह कराही भर थी, बस। हरी बहुत ज्यादा उदास हो गया था। किसी हद तक उसे लगा था शायद वह बचेगी नहीं। गांव का चौकीदार उसे बुला गया था। उसे भी मुख्यमंत्री के सामने हाजिर होना था। बहत बेमन, लगभग टूटा हुआ वह वहां पहुंचा तो फोटो खींचने की तैयारी हो रही थी। हरी ने नोहरी को अपनी टूटी उंगली झंडी की तरह ऊंची करके विज्ञापित करते देखा। वह हतोत्साहित होकर एक ओर हो गया।

प्रधान ने उसे डांटकर आगे आने को ललकारा और पास खड़े बड़े हाकिम को बताया कि हरी की बीवी बहुत जख्मी है।

"छल्ली को क्यों नहीं लाया बे?" किसी दूसरे ने उसे डांटा।

हरी ने भुनभुनाकर कुछ कहा।

लोग फोटो खिंचाने के लिए इकट्ठा होने लगे।

“अबे चल तू ही आ!" प्रधान ने उसे ललकारा।

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