कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
दुर्घटना
कितना होता होगा पांच हजार रुपया? पांच हजार! शायद एक बड़े घड़े में भरा जाए
तो भी न समाए या फिर उसके लिए बहुत ही बड़े लोहे के संदूक की जरूरत होती हो।
हरी ने सोचा और उस जंगली पौधे के मुलायम पत्तों का गट्ठा घास की डोरी में
बांध लिया जिसे वह कुकरौंधा कहता था और जिसके बारे में उसका खयाल था कि उसके
रस से चोट ठीक हो जाती है।
कितना होता होगा पांच हजार रुपया? और अगर वह मिले तो कैसे रखा जा सकेगा? कहां
रखा जा सकेगा?
कुछ बरस पहले किशनचन्द के घर डकैती पड़ी थी। डाकू एक बहुत भारी लोहे का संदूक
घर से बाहर लुढ़का लाए थे और पूरे एक पहर उसे कुल्हाड़ियों से काटते रहे थे।
मगर उसमें बीस हजार के जेवर और रुपए थे। पांच हजार के लिए उतना बड़ा संदूक
नहीं चाहिए। उसका चौथाई होगा। लेकिन संदूक तो चाहिए और उसमें एक ताला भी
चाहिए। ताला हो तो चाभी भी चाहिए।
और सिर्फ यही क्यों, संदूक रखने के लिए थोड़ा मजबूत दरवाजा चाहिए। उस दरवाजे
पर भी ताला चाहिए। चोर कभी-कभी फूस हटाकर घुस आते हैं। छत भी होनी चाहिए।
वह सब हो सकता है। पांच हजार रुपए हों तो संदूक, दरवाजा और ताला खरीदे जा
सकते हैं। खरीदने तो होंगे ही।
मगर यह सब इतना आसान होगा क्या? ताला लगाने के लिए दरवाजा ऐसा चाहिए जिसमें
लोहे का कुंडा और जंजीर लगी हो। तालियां बचाकर रखनी होंगी। खो जाएं तो मुसीबत
खड़ी हो सकती है। तालियां रखने के लिए भीतरी जेब लगा हुआ कुर्ता चाहिए।
खासा भारी झंझट है। हरी को अजीब-सी बेचैनी हुई। उस बेचैनी की भाषा बहुत सही
नहीं थी, लेकिन वह थी। कुछ संचित करने का यह पहला एहसास उसके लिए बिल्कुल
अजनबी और किसी हद तक त्रासद था।
संचय के साथ संतुष्टि और सुख उसके लिए अनजाना था।
जाने कितनी पीढ़ियां हरी की गुजरी होंगी। उन लोगों ने यह जाना ही नहीं था कि
संचय क्या होता है। खाना पकाने के किसी बर्तन और चूल्हे तक के स्वामित्व को
उन्होंने कभी नहीं जाना था। हरी जिस दुनिया का आदमी था उसमें दो बहुत साफ
हिस्से हो गए थे, एक हिस्सा उनका जिनके पास अपनी कही जानेवाली चीजें थीं-घर,
बर्तन, कपड़े, दरवाजे, कुआं, खेत, जानवर और दूसरे वे लोग थे जिनकी जरूरतें
सिमटकर उनकी खाल के नीचे रह गई थीं। कमर पर बंधा मैल से काला हो चुका अंगोछा
भी उनका अपना है यह उन्होंने कभी नहीं जाना था। कुछ संचित करने, कुछ अपना बना
सकने की चाह जाने कब मर गई थी अब उनके यहां पैदा होनेवाला हर नया व्यक्ति
बिना इस प्रवृत्ति के ही पैदा होना सीख गया था।
थोड़ा-सा बेचैन होकर हरी ने बबूल के उन दरख्तों की तरफ देखा जिनके कांटे
प्रेत के दांतों की तरह तीखे सफेद चमक रहे थे। उनकी पत्तियां गायब हो चुकी
थीं और भूरे आसमान पर उन पेड़ों की शाखें इस तरह छपी थीं जैसे काले खूनवाली
शिराएं सूखकर वहां छप गई हों।
बबूल का पेड़ किस कदर बेडौल होता है। जड़ से लेकर पतली टहनियों तक कहीं किसी
अंश में सुघड़ता वहां नहीं होती। बेहद खुरदरे, काले और बेडौल तने पर गोंद
रिस-रिसकर इस तरह सूख जाता है जैसे घाव सड़ गए हों।
उसने हाथ में थमे पत्तों के बंडल को देखा और घर की ओर अलसाया-सा बढ़ चला।
फर्श पर बहुत सड़े कपड़ों से आधी ढकी छल्ली कराह रही थी। उसके सिर और दोनों
कंधों पर अस्पतालवालों ने बहुत उजली पट्टी बांध दी थी। कूल्हे से लेकर घुटने
तक उतना ही सफेद पलस्तर चढ़ा दिया गया था।
जब वह सब ताजा था उस वक्त उसकी सफेदी में एक खास शान और भड़कीलापन था। लेकिन
चंद रोज में ही उस सफेद आवरण पर मिट्टी और गन्दगी के भद्दे दाग पड़ चुके थे।
कल छल्ली के जख्मों में बहुत दर्द था। उनसे चिपचिपा-सा कुछ बहकर पट्टियों से
बाहर झलकने लगा था।
अपनी ज्यादा विश्वसनीय दवा लगाने की गर्ज से हरी ने पट्टियों खोल दी थीं।
घावों के रिसकर सूखने से पट्टियों की परतें सूख गई थीं।
हरी ने छल्ली की चीखों के बावजूद घाव नीम के पानी से धोकर उसमें कई पत्तों का
रस निचोड़ दिया था और पट्टी दुबारा बांध दी थी। पट्टी बांधने में जो बेशऊरी
हुई थी उसकी वजह से हर दाग अलग-अलग जगह फैल गया था। दागों से भरी उन पट्टियों
में पत्तों के रस के गंदे हरे रंग और मिट्टी ने सफेदी चर डाली थी और वे
पट्टियां किसी हद तक वीभत्स हो उठी थीं।
आज तकलीफ और ज्यादा हो गई थी और छल्ली या तो जल्दी-जल्दी सो जाती थी या बेहोश
हो जा रही थी। चिंतित हरी ज्यादा कारगर दवा कुकरौंधे की तलाश में निकल आया
था।
वैसे तो उसे जिंदगी और मौत दोनों के ही सही अर्थ मालूम नहीं थे बल्कि वह उनसे
किसी हद तक असंपृक्त ही था लेकिन छल्ली मर जाए यह कल्पना वह अपने से दूर ही
रखना चाहता था। छल्ली वचेगी इसी की उम्मीद उसने ज्यादा कर रखी थी। यह विश्वास
और भी दृढ़ इसलिए हो गया था कि जिस तरह की दुर्घटना से बचकर वह यहां तक आ सकी
थी उससे इस तरह कितने लोग बच पाए थे, चमत्कार ही था की छल्ली वच गई थी। वे
दोनों उस रात मेले से लौट रहे थे। मेला वे घूमने नहीं काम के लिए गए थे। मेले
के इंतजाम में मजदूरी का बहुत-सा काम निकल आता था।
इस बार मेला कुछ ज्यादा ही सुखद रहा। पहले तो उन्हें दो हलवाइयों का सामान
बैलगाड़ी से उतरवाने और उसे सजाने में मदद करने का काम मिला।
हलवाई कुछ सामान तो ताजा मिठाइयां तैयार करने के लिए लाया था और कुछ
बना-बनाया भी लाया था।
"देखो, कुछ गिरने न पाए। गिरेगा तो मिट्टी लग जाएगी।" हरी सामान उतारते वक्त
ज्यादा ही सावधानी दिखाते हुए छल्ली और दूसरे मजदूर को हिदायत देने लगा।
सामान उतारने के बाद उसने मिट्टी और ईंटों की मदद से एक भट्ठी भी तैयार की।
काम खत्म करके थोड़ी-सी झिकझिक और आजिजी के प्रदर्शन के बाद साढ़े पांच रुपये
मिले और गुड़ की मिठाई भी। और यह काम खत्म करते ही उन्हें उस तमाशेवाले के
यहां काम मिल गया जो एक छोलदारी के अंदर बहुत-से टेढ़े-मेढ़े आईने लगा रखता
था जिनमें से किसी में आदमी मोटा दिखता था, किसी में पतला। उन शीशों को
लगवाते वक्त वह छल्ली की बेढंगी आकृतियों पर बेतरह हंसता रहा था।
उसे सबसे ज्यादा मजा झूलेवाले चर्खे को लगवाने में आया। जरा-सा असावधान होने
पर चर्खे का वह सिरा फिर ऊपर जा लटकता था जिस पर सबसे आखिर में झूला लगाने की
कोशिश की जा रही थी। एक बार तो उस सिरे से उलझी हुई छल्ली लटककर ऊपर
जाते-जाते बची। हरी को बेतहाशा हंसी आती रही थी।
काम खत्म करके उन्होंने गुड़वाली मिठाई खाकर नहर से पानी पिया। हाथ-मंह धोया
और आधे जमे मेले की सैर की। इसके बाद रास्ते के लिए थोड़े से भुने चने खरीदकर
पोटली में बांध लिए।
हरी के जैसे और भी बहुत-से लोग आए होंगे और उनमें से ज्यादातर उसी की तरह रात
उतरते घर लौट रहे होंगे क्योंकि मेले की गर्द और गैसबत्ती की रोशनियां पीछे
छूटते हुए देखने पर हरी को लगा सैकड़ों लोग उसी की तरह धुंध में तैरते चले आ
रहे हैं।
इस तरह की भीड़ अजीब होती है। उसमें एक-दूसरे को जोड़नेवाला अर्थवान लगभग कुछ
भी नहीं होता। संवाद लायक मुद्दे तो बिल्कुल ही नहीं होते। भेड़ों की निरीह
भीड़ की तरह वे यात्रा करते हैं।
भीड़ में एक-दूसरे से अपने को जोड़ने के लिए ही जैसे किसी ने गाना शुरू कर
दिया। पतली-तीखी और किसी कदर उदास आवाज में गाया जानेवाला बिदेसिया उनके अपने
अकेलेपन को किनारे धकेलकर उनके साथ इस तरह चलने लगा जैसे वही उनका अपना हो।
रात अभी बहत बाकी थी। बहुत घने अंधेरे में धुंध की अपारदर्शी झिल्ली हर चीज
पर चढ़ गई थी। इतने अंधेरे के बावजूद जमीन से चिपकी रेल की पटरियां चमक रही
थीं। पटरियों की दो कतारों के बाद शायद और भी होंगी।
दाई तरफ बिल्कुल बेजान ठंडी मालगाड़ी की ऊंची दीवार थी। वे सब कोई ढाई-तीन सौ
थे। पटरियों के आगे स्टेशन पार करने के बाद किनारे-किनारे उन्हें कई मील आगे
जाना था। सुबह तक उनमें से ज्यादातर लोग पैदल चलकर भी अपने-अपने गांव पहुंच
सकते थे। लगभग सभी थके हुए थे और ऐसा लग रहा था जैसे फटी मैली चादरों में
लिपटे हुए बड़े-बड़े बेडौल पत्थर अंधेरी धुंध को फोड़कर निकल रहे हों और
पटरियों पर सरकते जा रहे हों।
हरी ने कंधे पर रखी चने की पोटली बगल में दबा ली और पीछे घूमकर देखा। धुंध और
अंधेरे में किसी चेहरे को पहचान पाना सहज नहीं था। लुढ़की आ रही भीड़ में दो
पटरियों के बीच तीन आकृतियां औरतों की जैसी थीं। उन्हीं में छल्ली भी होगी।
हरी इस उबाऊ एकरस यात्रा को तोड़ने की नजर से संकरी चिकनी रेल की पटरी पर
पांव साध-साधकर चलने की कोशिश करने लगा।
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