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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


यहां से अचानक मेरी राजनीतिक बेशऊरी की शुरुआत हो गई। खुद-ब-खुद _हो गई। मुझे गिरफ्तारी का वह नाटक बहुत अजीब लगा था। पर मुझे यह नहीं मालूम था कि इस समय समूची राजनीति इसी छद्म पर निर्भर हो चुकी थी। मैंने दफ्तर के बाहर उस पत्रकार के साथ एक और चाय पी और इस बात पर हैरानी और क्षोभ जाहिर किया कि मेरी पार्टी भी इस तरह का नकली प्रदर्शन कर रही थी।

अगले रोज कार्यालय में जैसे उथल-पुथल मच गई। जिससे मैंने बात की थी वह कोई बड़ा पत्रकार नहीं था, बल्कि एक खराब अखबार का ऐसा पत्रकार था जिसको कोई अखबार साल-डेढ़ साल से ज्यादा रखता नहीं था। उसने पिछले दिन की मेरी बातचीत ज्यों की त्यों छाप दी। शीर्षक था-'अंबेदकर भक्ति का ढोंग'।

इसमें संदेह नहीं कि बहुत-से अखबारों में पार्टी द्वारा आंदोलन की उत्साह-वर्धक खबरों की तुलना में इस खबर ने लोगों को आकृष्ट किया। राष्ट्रीय नेता अगले दिन भी शहर में थे। वे राजनीति में अपनी राष्ट्रीय राजनीति की एक क्रांतिकारी घोषणा करने वाले थे। लेकिन पत्रकारों ने सबसे पहले उनसे अखबार में छपे मेरे बयान पर ही सवाल किया। वे कुछ देर चुप रहे, फिर बीमार पड़ गए। उनके सीने में दर्द होने लगा। संवाददाता सम्मेलन समाप्त हो गया और अगले दिन उस अनुत्तरित सवाल के बजाय अखबारों ने उनके सहसा अस्वस्थ होने की खबर छापी। मेरे बयान से पैदा हुई असुविधा से राष्ट्रीय नेता ने पार्टी को बचा लिया। चार दिन वे अस्पताल में रहे। देश-भर से तार और फोन आए और फिर वे दिल्ली लौट गए।

उन्हें विदा करके जब मैं रावत, फरीद और सुदामा के साथ लौटा तो कार्यालय में नियाज अहमद का ड्राइवर बैठा था, एक खत के साथ। खत मुझे कोई खास चीज नहीं लगा। वह जिला अध्यक्ष के औपचारिक चुनाव की अधिसूचना थी। लेकिन यह दो दिन बाद ही मालूम हुआ कि उस समय उस अधिसूचना का मतलब क्या था।

मेरे साथ नियाज अहमद ने भी जिला अध्यक्ष पर के लिए नामांकन भरा था। मैंने सहाय से बात की तो बोले, “अरे, वह तो औपचारिकता है। नियाज ऐसी हरकतें करता ही रहता है। आप तो अध्यक्ष हैं ही।"

पर नामांकन की जांच की तारीख पर सब कुछ साफ हो गया। मेरा नामांकन पत्र रद्द हो गया था और उसे रद्द करने का तर्क अकाट्य था। चुनाव अधिकारी सुंदरलाल ने कहा कि मेरे द्वारा बनाए गए पांच सौ सक्रिय सदस्यों की सूची जाली पाई गई थी।

यह पार्टी से मेरे संबंधों का अंत था। पर एक संबंध फिर भी बना रहा था। नए अध्यक्ष नियाज अहमद ने जाली सदस्यता को लेकर निचली अदालत में एक मुकदमा दायर कर दिया था। मुकदमा मेरे लिए कोई खास परेशानी नहीं था, पर महीने-दो महीने में अदालत जाना खलता था।

चौक पर डॉ. अंबेदकर की मूर्ति के उद्घाटन के लिए निमंत्रण न आना घर पहुंचने तक मैं भूल चुका था। घर आया तो मालूम हुआ, कई लोग इंतजार कर रहे हैं। इनमें इम्तियाज आलमी भी थे। वे शायर थे और पास के एक गांव में होमियोपैथी का एक छोटा-सा दवाखाना भी चलाते थे। कुछ महीने पहले उत्साह में उन्होंने सिर के बालो और दाढ़ी-मूंछ में खिजाब लगा लिया था। उनकी खाल के अनुकूल न होने के कारण उनके सारे बदन में फफोले पड़ गए थे। तब से उन्होंने अपने सारे बाल साफ करा दिए थे।

वे एक गंभीर मसला लेकर आए थे। गांव में जमीन के बंटवारे को लेकर उन्होंने एक प्रदर्शन किया था। प्रदर्शन पर लाठी-चार्ज हो गया था और कुछ नाराज प्रदर्शनकारियों ने पुलिस की एक गाड़ी में आग लगा दी थी। इसके बाद पुलिस ने और ज्यादा जोरदार लाठी-चार्ज किया था और करीब तीस लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया था। मैं भी गिरफ्तार हुए लोगों से मिला था। जाफर उनका मामला अदालत में उठा रहे थे। पर इस बीच एक ज्यादा गंभीर घटना हो गई थी। भोलू काछी की दोनों युवा लड़कियां उस हंगामे के दिन से गायब थीं। इम्तियाज आलमी के पास वे आज सुबह आई थीं।

इम्तियाज ने बताया कि वे उन्हें लेकर अखबार वालों के पास गए थे। उनकी सारी कहानी अखबार वालों ने उन्हीं से सुनी थी और वे प्रभावित भी थे, पर सारा मामला डॉक्टरी जांच पर अटक गया था। उनका कहना था कि बिना डॉक्टरी जांच के उनके लिए कुछ भी लिखना मुश्किल था।

“वे लड़कियां हैं कहां?" मैंने पूछा।

इम्तियाज ने बताया कि वे उन्हें अपने घर छोड़ आए हैं। बोले, "उनकी दिमागी हालत बहुत खराब है। अखबार वालों से बात करते-करते वे बेहद परेशान हो गई हैं।

मैं कल्पना कर सकता हूं कि अपने ऊपर बीती कथा को सिलसिलेवार बार-बार दुहराना किस कदर तकलीफदेह और शर्मिंदा करने वाला अनुभव रहा होगा। इम्तियाज ने कहा, "आप कोशिश करें, अगर मुख्यमंत्री जी से उनकी मुलाकात हो जाए। आखिर उन जालिमों के खिलाफ कुछ तो होना चाहिए।"

बहुत कोशिश के बावजूद मुख्यमंत्री से बात नहीं हो पाई। उनके निजी सहायक ने कहा कि वे बात करके फोन पर सूचित करते हैं, पर उनका फोन भी नहीं आया।

ऐसे मौके पर मुझे सहाय याद आए। लगा, शायद वे इस मामले में कुछ कर सकें। उन्हें फोन किया तो वे मिल गए। चौक से मूर्ति अनावरण के जलसे से लौटे थे और खासे ही खुश थे। मुझे ज्यादा खुशी इस बात से हुई कि उन्होंने अगली सबह उन लड़कियों के साथ घर आने को कहा और आश्वस्त किया कि वे मुख्यमंत्री जी से न सिर्फ मिलवा देंगे, बल्कि कार्यवाही के लिए उन्हें मजबूर भी करेंगे।

अगली सुबह नियत समय से कुछ पहले ही इम्तियाज आलमी दोनों लड़कियों के साथ सहाय के मकान के बाहर खड़े मिले। वे दोनों सांवली लड़कियां एकदम खामोश बुतों की तरह खड़ी थीं। बहुत सस्ते नाइलोन की खासी मैली साड़ियां उन्होंने पहन रखी थीं। उनकी आंखें झुकी नहीं थीं, पर वे जैसे कुछ भी देखने से इंकार करती हुई खुली थीं।

सहाय हमेशा की तरह अपनी बैठक में दस-बारह लोगों से घिरे हुए बैठे अपनी बांहों की मालिश करवा रहे थे। मुझे देखते ही चहके, "अहोभाग्य, इतने दिन बाद दर्शन तो दिए।"

गोकि फोन पर बात हो चुकी थी और दोनों लड़कियों के साथ इम्तियाज आलमी सामने खड़े थे, पर सहाय उन्हें देखते हुए भी नहीं देख पा रहे थे। उत्साह के साथ लोगों को बताने लगे, "जब पार्टी ने लाखों कार्यकर्ताओं के साथ बादशाह नगर में गिरफ्तारी दी थी तो प्रदेश के जत्थे का नेतृत्व इन्होंने ही किया था। क्या आंधी-तूफान था उस दिन!"

वे बोलते थे तो बीच में पूर्ण विराम क्या, अर्धविराम भी खोज पाना कठिन होता था। बड़ी मुश्किल से मैंने याद दिलाया, "सहाय साहब, रात में मैंने फोन किया था, आप हैं इम्तियाज साहब और ये हैं दोनों लड़कियां।"

“ओ हो हो!" सहसा वे जैसे चैतन्य हो गए। मालिश वाले को उन्होंने रोक दिया और दीवान पर थोड़ा आगे झुक गए, फिर उन्होंने कुछ ओह या आह जैसी आवाज भी निकाली और बोले, "तो ये हैं वो लड़कियां? हूं, बताइए, बताइए भला, अब क्या कहा जाए?"

उन्होंने आसपास बैठे लोगों से कहा, "ये हैं वो दोनों गरीब दलित बच्चियां। देख रहे हैं आप, जिनके साथ एक नहीं कई-कई पुलिस के दरिंदों ने रेप किया था, गैंग रेप, बलात्कार! क्यों बेटा, उन बदमाशों ने छेड़छाड़ नहीं की, बाकायदा बलात्कार किया है न तुम दोनों के साथ-मतलब इज्जत लूटी है न? बताओ भला, दोनों के साथ किया? बहनें हो न तुम दोनों? थाने में न? या फिर अपने दफ्तर में किया? अब बताओ, ये साले जब अपने थाने में नंगे हुए तो पूरा महकमा नहीं नंगा हो गया? और इन मासूम बच्चियों को इस तरह-अब क्या कहूं! अरे, इनके रहने को घर नहीं होता, खाने को अनाज नहीं, पहनने को कपड़े नहीं होते। अरे, इन्हें नंगी करके तुम इनकी इज्जत नहीं, पूरे देश की इज्जत लेते हो। कब हुआ ये सब, जरा इन लोगों को बताओ तो? डरो नहीं बेटा! क्या हुआ, बता दो?"

दोनों लड़कियां ठीक वैसी ही बुत जैसी बैठक के बीचोचीच खड़ी थीं, आंखें खुली पर कोई चीज ने देखती हुईं।

सहाय की रानों पर शायद खुजली होने लगी थी, क्योंकि उनकी उंगलियां वहां कुछ खुरचने लगी थीं। उनका चेहरा थोड़ा सांवला-सा हो आया था। उन्होंने लोगों की तरफ निगाह दौड़ाई और थोड़ा गला साफ करके बोले, “अरे बेटा, इस तरह चप रहने से क्या होगा? यह कानूनी मामला है। सब कुछ साफ-साफ बता दो, जो भी हुआ है। कैसे, क्या-क्या हुआ?"

अब खामोश खड़े इम्तियाज आलमी ने मेरी तरफ देखा और बोले, “अब हमें इजाजत दीजिए हुजूर! आओ बच्चियो! चलो। जनाब सहाय साहब! मुजरे के लिए किसी और को बुला लीजिएगा, आदाब!"

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