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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


पार्टी कार्यालय में थोड़े पसोपेश के साथ अभी मैं नियाज अहमद के बारे में किसी नतीजे पर आने की कोशिश कर ही रहा था कि नियाज अहमद खुद ही आ गया। आते ही बड़े आदर के साथ आदाब किया और बोला, “आपकी नुमाइंदगी में इस बार हमारे शहर का सबसे बड़ा जत्था जाना है। एक पूरी बोगी मैंने बुक करा ली है। वैसे मेरी तीन बसें भी आपकी खिदमत में पेश हैं। मेरा खयाल है, इतना काफी होगा।"

"पर इतने लोग इतनी जल्दी आएंगे कहां से?" मैंने पूछा।

"अरे, ये खादिम किसलिए है हुजूर!" नियाज बोला।

मुंहफट फरीद बोला, "यह कौन सी मुश्किल बात है? मुफ्त पूड़ियों और घूमने के नाम पर लोग बड़े आराम से इकट्ठा हो जाते हैं।"

यात्रा पूरी रात की थी। लोग जग रहे थे और यात्रा के मजे ले रहे थे। सहाय हम लोगों के साथ ही थे, पर हर स्टेशन पर उतरकर गायब हो जाते थे। मुझे थोड़ी उत्सुकता हुई तो फरीद बोला, "नेताजी को देखने जाते हैं। क्यों, मैं गलत कह रहा हूं सहाय साहब? चाय-वाय तो पूछ ही ली होगी आपने, कुछ खाने वगैरह का इंतजाम भी किया नेताजी के लिए?"

मुझे छोड़कर बाकी सभी जानते थे सहाय की आदत। वे और भी बहुत-सी बातें सहाय के बारे में जानते थे। चर्चा सुनकर सुदामा निषाद भी हम लोगों की सीटों के बीच आ खड़ा हुआ। अस्वाभाविक रूप से ऊंची आवाज में बोला, "अरे, इनको सहाय साहब का वो वाला किस्सा सुनाओ, गेस्ट हाउस वाला। मैं सुनाऊं? कैसा जोरदार था वो शटप! लगा, नेताजी क्या कर डालेंगे।"

सहाय के चेहरे पर तनाव आ गया, "बकवास बंद करो सुदामा! जाओ यहां से, अपनी सीट पर बैठो जाकर।"

सुदामा बेशर्मी से हंसा और सामने वाली बर्थ पर थोड़ी-सी जगह बनाकर बैठ गया। बोला, “फरीद मियां, बताओ न वो किस्सा। नेताजी का गुस्सा देखकर सहाय साहब की तो सिट्टी-पिट्टी गुम।"

सहाय कुछ ज्यादा ही नाराज हो गए। सुदामा से कहा कुछ नहीं। किसी को आवाज देते हुए उठे और गाड़ी के डिब्बे के दूसरी तरफ चले गए।

बादशाह नगर का स्टेशन बहुत छोटा और गंदा था। कुछ जत्थे शायद पहले आ चुके थे और उन्होंने जिस तरह स्टेशन पर बने पाखानों का इस्तेमाल किया था उससे वह बेहद बदबूदार एक ऐसी जगह में तबदील हो गया था जिसे उससे ज्यादा वुरी हालत में पहुंचाने की कल्पना नहीं की जा सकती थी। अभी मैं सोच ही रहा था कि निवृत्त होने का क्या तरीका हो सकता है कि एक जबर्दस्त उजाला चारों ओर फैला और हर चीज और अंधेरी करता हुआ गायब हो गया। उस बेहद तेज रोशनी के बारे में लोग कुछ सोच पाते कि एक दहला देने वाला धमाका हुआ। यह बिजली कड़की थी। रोशनी और आवाज इतनी तेज थी कि लोग सहम गए। और अव मैंने गौर किया, जिसे हम गोधूलि से पहले का समय समझ रहे थे, वह वक्त सूर्योदय के भी बाद का था। समय सात से कुछ ऊपर ही था, पर आसमान पर बेहद घने और इस्पाती भूरे वादल छाए हुए थे। एक बार फिर बिजली चमकी, पर कहीं बहुत दूर। कड़क की आवाज आने में भी खासा समय लगा। और तब बहुत तेज भीगी हवा का झोंका आया। स्टेशन के उस पार जिधर जंगल और बियाबान जैसा था, उधर आसमान पर गहरी कालिमा उभरी और किसी दैत्याकार साए की तरह तेजी से आगे बढ़ी।

किसी ने कहा, “वचना, बहुत जबर्दस्त अंधड़ आ रहा है।"

स्टेशन की इमारत हमारे जत्थे के लिए काफी थी, पर अंधड़ से पहले आए जत्थे भी डर गए होंगे। निवृत्त होने के बाद वे उसी उजाड़ में फैल गए थे। अब वे तेजी से भागकर स्टेशन की इमारत की तरफ आ रहे थे।

आंधी सचमुच बहुत तेज थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह स्टेशन की इमारत ही उखाड़ ले जाएगी और देखते ही देखते तेज बरसात भी होने लगी। आंधी की वजह से पानी स्टेशन के सायाबान ही नहीं, कमरों को भी भिगोने लगा और ठंड बहुत ज्यादा हो गई।

साथ लाए झंडे और बैनर पानी में लथपथ हो गए। आंधी तो जल्दी ही रुक गई, पर बारिश और ज्यादा तेज हो गई।

बहुत ज्यादा सर्दी, भीगे कपड़े और लंबे समय तक पानी रुकने के इंतजार से लोग बुरी तरह ऊबने लगे। थोड़ा-सा जो खाने का सामान था वह रात-भर के सफर में समाप्त हो चुका था। स्टेशन के पीछे के उसी बियाबान हिस्से में कछ तंब लगाकर पार्टी की बादशाह नगर इकाई ने बड़ी-बड़ी भट्ठियां जलवा ली थीं और बहुत तेजी से लोगों के खाने का सामान तैयार हो रहा था। उस तरफ से भागकर आए लोगों ने बताया कि आंधी के पहले ही हमले में तंबू ध्वस्त हो गए थे और फौरन ही शुरू हो गई बरसात ने भट्ठियों सहित भोजन सामग्री भी तहस-नहस कर डाली थी। इस समाचार से लोगों की रही-सही हिम्मत भी जवाब दे गई।

पानी एक बार थोड़ा-सा हल्का हुआ पर जब तक लोग कुछ सोचते, फिर तेज हो गया। उकताहट और निराशा कम करने के लिए किसी ने सुझाया-नारे लगाए जाएं। थोड़ी-सी कोशिश कुछ लोगों ने की भी, पर कोई ठीक से साथ नहीं दे पाया।

लगभग तीन घंटे बीत चुके थे और बारिश वैसी की वैसी ही हो रही थी। अब लोगों ने देखा, चारों तरफ पानी भर रहा है। मटमैले गंदले पानी में झाड़ियां तक लगभग आधी डूब चुकी थीं। सुदामा निषाद ने पानी देखा और सहाय का उतरा हुआ चेहरा और हंस पड़ा। बोला, “सहाय बाबू, आइए, कुछ मछलियां मार ली जाएं। कैसा रहेगा?

सहाय का चेहरा और ज्यादा तन गया। सख्त आवाज में बोले, “फरीद कहां है?"

"फरीद मियां वो रहे।" सुदामा ने उनके पीछे इशारा किया।

सहाय बोले, “फरीद मियाँ, तुम और सुदामा जरा मेरे साथ आओ।"

“साथ तो हूं ही। और कितना साथ आऊं!" सुदामा फिर हंसा।

"वकवास मत करो जी।" सहाय नाराज होकर चीखे, "मेरे साथ चलो। जरूरी काम है।"

सहाय उस बारिश में स्टेशन के बाहर घुटनों तक उमड़ते पानी में उन दोनों को लेकर उतर गए।

बरसात लगातार होती जा रही थी। लोगों की उकताहट अब और बढ़ गई। लगभग डेढ़-दो घंटे बाद सहाय लौटे। उनके साथ कुछ हाथ-गाड़ियां थीं और उन पर प्लास्टिक की चादरों से ढका कुछ खाने का सामान था। बहुत तरह का सामान, जैसे उस छोटे शहर की सारी दुकानों का सामान भर लिया गया हो। पर स्टेशन पर जमी भीड़ के लिए वह भी बहुत कम था। खाने की चीजों के बंटवारे में खासा ही वक्त और बीत गया। पीने के पानी की समस्या भी कुछ लोगों ने हल कर दी। ट्रेन की पटरियों की तरफ प्लेटफॉर्म के शेड से शुरू में काफी देर खासा गंदा पानी गिरा था, पर बाद में साफ गिरने लगा था। स्टेशन पर दोनों छोरों पर पानी के नल थे, लेकिन उनकी टंटियां चोरी हो चुकी थीं। पानी बेकार न बहे, इसलिए किसी ने नलों में लकड़ियां ठोंक दी थीं।

मैंने देखा, नियाज अहमद कुछ कागज लिए हुए लोगों के नाम लिख रहा है। मैंने रावत से पूछा तो वह धीरे से बोला, "गिरफ्तार होने वालों की सूची बन रही है। यह पुलिस को दी जाएगी। आपका नाम सहाय साहब ने पहले ही लिख दिया है। प्रदर्शन हुआ है तो गिरफ्तारी तो होगी न!"

उस विचित्र गिरफ्तारी का मेरा यह पहला अनुभव था। नेताओं की ओर से नामों की लंबी-चौड़ी सूची थाने पहुंचा दी गई। उसमें उनके नाम भी थे जो किसी कारण आ नहीं पाए थे। सरकारी कागजों के अनुसार हम लोगों ने जबर्दस्त प्रदर्शन करके कानून तोड़ा था और गिरफ्तार कर लिए गए थे, और बाद में मजिस्ट्रेट ने
चेतावनी देकर सबको रिहा कर दिया था। शायद वहां भी जबर्दस्त बारिश के बावजूद प्रेस-विज्ञप्ति दी गई होगी और बताया गया होगा कि पार्टी ने एक जबर्दस्त प्रदर्शन किया और हजारों सत्याग्रहियों ने गिरफ्तारी दी। गोकि सत्याग्रहियों का पूरा वक्त बारिश से बचने ओर खाने की कोई चीज पा लेने में ही सर्फ हुआ था।

वापस लौटकर भी एक संवाददाता सम्मेलन हुआ। एक बार फिर अखबार वाले आए। उन्होंने उकताहट के साथ चाय पी और पहले से लिख ली गई विज्ञप्ति की प्रतियां लेकर उठ खड़े हुए। एक अखबार के पत्रकार ने चलते-चलते मुझसे पूछा, “आप भी गए थे?"

"हां।"

"गिरफ्तारी दी थी?"

मैं हंसा, "हां, अगर उसे गिरफ्तारी कहा जा सके।"

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