कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
सहाय यह काम बड़ी सावधानी से करते थे। सक्रिय सदस्यों को अधिकारियों के
निर्वाचन का अधिकार होता था। पर यह सिर्फ सहाय को ही पता होता था कि सक्रिय
सदस्य कौन हैं। कभी-कभी कोई और भी इस मामले में सक्रियता दिखाने लगता था और
चंदे सहित पांच-छह सौ सदस्य बना डालता था। लेकिन ऐन मौके पर उनके नाम गायब
मिलते थे। और इसका नतीजा यह होता था कि उन्हें सदस्य बनाने वाला पार्टी का
चुनाव लड़ने से वंचित रह जाता था। वह सिर्फ नामजद होने लायक ही रह जाता था।
हालांकि यह भी सच है कि पार्टी के चुनाव बरसों से नहीं हुए थे और अभी निकट
भविष्य में होने भी नहीं जा रहे थे।
रावत ने बताया कि इसी दांव से तो सहाय जी ने पिछले से पिछले जिला अध्यक्ष को
पटखनी दे दी थी। वे खासे तेज-तर्रार बुजुर्ग थे। स्वतंत्रता सेनानी का
ताम्रपत्र भी उन्हें मिला हुआ था। जिला अध्यक्ष बनने के बाद समिति में
उन्होंने सहाय के बताए लोग बड़ी उदारता से शामिल किए, पर जब अखबार में खबर
छपवाई तो उसमें कुछ नाम उनके अपने थे। इन नामों में नए जिला अध्यक्ष महोदय के
साले साहब का नाम भी शामिल था और वे जिला पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद को
शोभित कर रहे थे। इनके नाम को देखकर सहाय खासे ही गंभीर हो गए थे, क्योंकि
उनके अपने भवन-नर्माण के व्यवसाय में पिछले कुछ बरसों से सबसे बड़ी बाधा यही
सज्जन थे, क्योंकि ये खुद नई बस्तियां बनाने का व्यवसाय करते थे। पार्टी की
जिला समिति के वरिष्ठ पदाधिकारी होकर वे सहाय के लिए और ज्यादा मुश्किलें
खड़ी कर सकते थे।
इस घटना के बाद सहाय ने बुजुर्ग जिला अध्यक्ष महोदय पर ठीक यही दांव आजमाया।
उन्होंने घोषणा की कि जिला अध्यक्ष का अव बाकायदा निर्वाचन होगा। इसके लिए
उन्होंने निर्वाचन अधिकारी भी नियुक्त कर दिया और नामांकन की तारीख भी
निर्धारित कर दी। नामांकन की जांच के दिन जिला अध्यक्ष महोदय धराशायी हो गए,
क्योंकि उनका नामांकन पांच सौ सक्रिय सदस्यों की सूची फर्जी होने के नाम पर
रद्द हो गया था। निर्वाचन अधिकारी खुद रावत ही थे। सूची तो सचमुच ही फर्जी
थी, क्योंकि उसके पांच सौ लोग कौन हैं और कहां रहते हैं, यह किसी को नहीं
मालूम था। दरअसल वे कहीं थे ही नहीं। पांच सौ सक्रिय सदस्यों के चंदे के रूप
में पांच हजार रुपए सहाय साहब द्वारा जमा कराए जाने की अंतर्कथा अब मेरी समझ
में आ गई थी।
नियाज अहमद की समस्या उम्मीद से पहले ही सामने आ खड़ी हुई। एक दिन अनायास ही
वे जिला कार्यालय आ गए। मैंने खासी प्रसन्नता दिखाते हुए उनका स्वागत किया।
बेहद शालीनता के साथ उन्होंने अपने को नाचीज बताते हुए देर तक मेरी तारीफ की
और बताया कि सहाय जी मेरे काम से बेहद प्रसन्न हैं। मैंने इस प्रशंसा के लिए
आभार प्रकट करने के बाद एक बार फिर नियाज अहमद से वरिष्ठ उपाध्यक्ष का पद
स्वीकार करने का अनुरोध किया।
नियाज ने एक बार फिर इनकार कर दिया, फिर बेहद विनम्रता से कहा, वह पार्टी की
सेवा इसके बावजूद करना चाहते हैं। इसके बाद उन्होंने अपना वह पत्ता फेंक दिया
जिसके परिणाम की मुझे भनक भी नहीं लग सकती थी। उन्होंने कहा, “सरे मोहतरम,
मैं आपकी मुश्किलात से भी वाकिफ हूं। जिला दफ्तर की परेशानी यह है कि यह तभी
खुलता है जब आप तशरीफ़ लाएं। कायदे से यह तो चौबीस घंटे खुलना चाहिए। यहां
कोई एक ऐसा नौकर भी होना चाहिए जो हर वक्त यहां का काम देखे। मैं आपका मुरीद
हूं। आपकी खिदमत करने में मुझे खुशी महसूस होगी। आप इजाजत दें तो मैं यह
खिदमत अंजाम दे सकता हूं।"
यह प्रस्ताव बुरा नहीं था। बल्कि मुझे इससे खुशी ही हुई। यह बात सच है कि
कार्यालय को सारा दिन दे पाना मेरे लिए असंभव ही था। मैंने नियाज के प्रति
आभार प्रकट किया। नियाज ने कहा, "हजर, मझे गलत न समझें तो दफ्तर की चाभी मुझे
दिलवाने की जहमत फरमाएं, ताकि कल से आपको दफ्तर खुला मिले। कुछ झाडू वगैरह भी
मैं मंगा लेता हूं। सफाई भी हो जाएगी, दफ्तर में गंदगी जमी पड़ी रहती है।"
रावत थोड़ी देर में आ गए। चाभी उन्हीं के पास रहती थी। उन्होंने सुविधा के
लिए एक चाभी मुझे दे रखी थी। मैंने खासे ही उत्साह से उन्हें बता दिया। उनके
चेहरे पर उलझन के निशान उभर आए। उन्होंने दबी आवाज में कुछ कहा भी, पर उसका
कोई अर्थ नहीं था। चाभी लेकर नियाज चले गए। अब रावत थोड़ा खले।
बोले, "चाभी देकर आपने ठीक नहीं किया।"
"क्यों, इसमें क्या तकलीफ है? दफ्तर नियम से खुलेगा, यह तो अच्छी ही बात है।"
मैंने कहा।
"मगर बहुत-सी ऐसी अच्छी बातें खासी बुरी साबित होंगी, आप नहीं जानते।" रावत
ने मुस्कुराकर धीरे से कहा।
तब तक फरीद मियां भी आ गए। चाभी के बारे में नियाज अहमद की बात मालूम हुई तो
वे एकदम भड़क गए, “यानी वो खेल शुरू हो गया। हुआ न वही। बुरा मत मानिएगा
जनाब, सहाय ने आपको समझा है बेवकूफ। आप बिल्कुल भोले हैं। अभी आपको कुछ नहीं
पता।"
मुझे अब इस प्रसंग पर असुविधा महसूस हुई। फरीद मियां की बात में एक तरह की
बदइखलाकी थी जो मुझे अच्छी नहीं लगी। रावत समझ गए। बोले, “फरीद मियाँ की वात
का बुरा मत मानिए, यह एक चाभी ही हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से बचाई है वरना
अब तक इस दफ्तर में या तो शैला हेनरी का चकला खुल गया होता या सहाय साहब का
कोई बेनामी धंधा चल रहा होता। आपको शायद अंदाजा नहीं होगा, इस जगह की पगड़ी
ही लोग सत्तर-अस्सी लाख दे रहे हैं। जगह की कीमत दो करोड़ से कम नहीं है।"
फरीद मियाँ बोले, “अध्यक्ष जी, एक बात बता दं. वे लोग चाभी ले जाएं या ताला,
इस जगह पर अगर किसी ने कब्जे की कोशिश की तो खून की नदियां बह जाएंगी, यह समझ
लीजिएगा।"
फरीद मियाँ देर तक गुस्सा दिखाते रहे। इसके बाद सारा मामला शांत हो गया और सब
कुछ ऐसे चलने लगा जैसे चाभी देना कोई खास परेशानी की बात नहीं थी। सहाय के
आंदोलन भी उसी तरह प्रायोजित ढंग से चलते रहे। गर्मियों का मौसम शुरू हो रहा
था। शहर में पिछले कई बरसों से पीने के पानी की किल्लत होने लगी थी। ऐसे हर
मौसम में सहाय एक खासा ही नाटकीय प्रदर्शन महापालिका के दफ्तर पर करते थे।
उनका वह प्रदर्शन भी हुआ। उनके व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के पचास-साठ कर्मचारी
मिट्टी के घड़े लेकर महापालिका के दफ्तर पहुंचे और थोड़ी देर
'जिंदाबाद-मुर्दाबाद' करने के बाद उन्होंने वे घड़े वहीं सड़क पर फोड़ दिए।
घड़े फोड़कर उन्होंने एक बार फिर 'जिंदाबाद-मुर्दाबाद' के नारे लगाए और
चौराहे पर चाय पीने के बाद वापस लौट गए।
नियाज अहमद को चाभी मिलने का नतीजा थोड़े ही दिनों में सामने आ गया। दफ्तर
चलाने के लिए नियाज अहमद पार्टी के उस दफ्तर के एक कमरे में बाकायदा बैठने लग
गए। जल्दी ही वहां एक टेलीफोन भी लग गया और खूबसूरत-सा फर्नीचर भी दिखाई देने
लगा। इसके बाद उसकी सजावट भी होने लगी। देखते-देखते वह दफ्तर एक अच्छी
व्यावसायिक कंपनी के दफ्तर में तबदील हो गया और फिर एक दिन वहां एक
खूबसूरत-सा साइनावोर्ड लग गया-नियाज एसोशिएट्स'।
मुझे यह खासा बुरा लगा, पर फरीद मियाँ एकदम फट पड़े, “अध्यक्ष जी, अभी आग
लगाता हूं इस सारे सामान को सड़क पर डालकर। आप बोलिएगा नहीं।"
मुझे भी गुस्सा कम नहीं आया था। नियाज भी पार्टी के ही आदमी हैं, यह सोचकर
मैंने कहा, "मैं जरा नियाज साहब से बात कर लूं।"
रावत हंसने लगे, “आप किस दुनिया में रहते हैं भाई जी? मगर आप कहते हैं तो ठीक
है। बात भी कर लीजिए।"
नियाज उस दिन भी नहीं आए और अगले रोज भी नहीं। तीसरे रोज मैंने उन्हें फोन
किया तो मालूम हुआ वे राष्ट्रीय अध्यक्ष महोदय की यात्रा के कार्यक्रम के
सिलसिले में कहीं गए हुए हैं। मैंने सहाय को फोन किया, वे भी नहीं थे। मुझे
थोड़ी उलझन हुई। जिला अध्यक्ष मैं हूं। मुझे राष्ट्रीय अध्यक्ष के दौरे पर
पता भी नहीं जबकि नियाज दौरे का कार्यक्रम तय करने गए हुए हैं।
रावत को भी यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने थोड़े संकोच से कहा, "मैं कहना
नहीं चाहता था, पर सच यह है कि आप जैसे आदमी को इस सबसे दूर रहना चाहिए था।
यह जो नियाज है इसका राजनीति से कोई रिश्ता दूर-दूर तक नहीं है। इसका व्यापार
भी एक दिखावा है। यह आदमी तस्करी करता है। आपको शायद याद हो, दो साल पहले
पुलिस एक तस्कर का पीछा करती हुई विधायक निवास तक पहुंची थी। नियाज को पुलिस
ने पकड़ा भी था। मगर अगले रोज मामला रफा-दफा हो गया था। रफा-दफा होने की वजह
थी नियाज का राष्ट्रीय अध्यक्ष से रिश्ता। राष्ट्रीय अध्यक्ष इसे बहुत मानते
हैं। आप कभी ध्यान दीजिएगा, अब यह जिला कार्यालय रात को भी खुलता है। यकीन न
हो तो फरीद मियां से पूछिए।"
फरीद मियाँ बोले, "अरे, इस स्मगलर की तो मां की...आप हुक्म कीजिए, फिर देखिए,
मैं क्या करता हूं!"
"इतने जोश में न आओ फरीद!" रावत ने कहा, "यह आदमी खासा हैवान है। खामपुर में
इसके मकान के तहखाने में कई आदमी बड़ी बुरी मौत मारे जा चुके हैं। यह तो यहां
आप लोगों के सामने इतना सीधा बना रहता है।"
"अरे, बहुत देखे हैं ऐसे गुंडे। कहिए तो आज ही रात को उठाकर फेंक देता हूं
सारा सामान।" फरीद मियां ने कहा।
उस वक्त उसे शांत करके मैं घर लौट आया। रात को सहाय का फोन आया। बोले, “आपके
दर्शन कई रोज से नहीं कर पाया। आपसे कुछ मार्गदर्शन लेना था। अध्यक्ष जी
परसों आ रहे हैं। बादशाह नगर में कुछ सवर्णों ने अंबेदकर जी की मूर्ति तोड़
दी है। वहां बड़ा मजाहरा होना है। सारे देश से लोग आ रहे हैं, करीब दो लाख
लोग होंगे वहां। आपको प्रदेश के जत्थे का नेतृत्व करना है। तैयारियां बहुत
करनी हैं, वक्त बहुत कम है। आपके मार्गदर्शन के बिना कुछ नहीं हो पाएगा। इस
प्रदर्शन को हम एक राष्ट्रीय घटना बना देना चाहते हैं, पर आपकी सलाह के बिना
कैसे होगा? अध्यक्ष जी ने खास तौर से याद किया है।"
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने मुझे याद किया है, यह एक अंतर्राष्ट्रीय झूठ
था, यह मैं जानता था, फिर भी यह कहकर प्रदेश अध्यक्ष सहाय, झूठी ही सही, जो
इज्जत मुझे दे रहे थे, उसकी उपेक्षा का कोई अर्थ नहीं था। मैंने उस संवाद के
बीच कई बार नियाज अहमद के प्रसंग की चर्चा करने की कोशिश की, पर सहाय की उस
गिलगिली भावुकता के बीच यह संभव ही नहीं हो पाया।
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