कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
यह भी विचित्र बात थी कि जो लोग उनके लिए इस तरह प्रदर्शन करते और
गिरफ्तारियां देते थे, वही लोग उनसे गहरी नफरत भी करते थे। नफरत भी छुपकर
नहीं, खुलेआम करते थे। अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में काम करने वाले
इन्हीं लोगों में से कुछ लोगों को उन्होंने जिला समिति में शामिल करा दिया
था। दलीय राजनीति या दल के सदस्यों से मैं बिल्कुल अपरिचित था, पर मुझे पांच
सौ सक्रिय सदस्यों की सूची थमाने वाले प्रदेश अध्यक्ष ने ही एक और सूची भी दी
थी, जिसमें मेरे अतिरिक्त अन्य पदाधिकारियों के नाम थे। यह सूची खासी
लंबी-चौड़ी थी। कोई भी अनुमान लगा सकता था कि इस सूची में शामिल किए गए लोग
उनके कट्टर समर्थक रहे होंगे, पर उनका प्रदेश अध्यक्ष के प्रति यह समर्पण एक
खासी ही पहेली दिखाई दिया।
जिला संगठन की पहली ही बैठक मेरे लिए एक खास अनुभव थी। सदस्य और पदाधिकारी
मेरे लिए सस्ते-से हार लाए थे, जिन्हें उन लोगों ने बड़ी श्रद्धा से पहनाया।
इसके बाद मेरे स्वागत में उनके भाषण का सिलसिला शुरू हुआ। भाषण आश्चर्यजनक
रूप से आत्म-स्वीकार थे। बड़े खुलेपन के साथ लोगों ने बताया कि जिला कार्यालय
और संगठन कहीं खोजकर भी नहीं देखने को मिलेगा। ज्यादा से ज्यादा वह प्रदेश
अध्यक्ष के निजी सेवकों का गिरोह-भर है। ठीक इसी वक्त प्रदेश अध्यक्ष खुद आए।
आते ही उन्होंने देर के लिए माफी मांगी और अपने ड्राइवर से लेकर मुझे एक खासा
महंगा हार पहना दिया, फिर बोले. "आप लोग बैठक जारी रखें। इजाजत हो तो मैं भी
बैठ जाऊं?"
जाहिर है, प्रदेश अध्यक्ष को सभा से बाहर मैं भी नहीं कर सकता था। जिला समिति
के ज्यादातर लोग उन्हीं के कार्यालय के कर्मचारी थे। यह बात हर एक ने कही और
हैरानी की बात तो यह कि ज्यादातर ने जिला संगठन की दुर्दशा का बयान करते हुए
कहा कि संगठन है ही कहां? अगर कुछ है तो प्रदेश अध्यक्ष की जेब में है। और भी
बहुत तरह की आलोचनाएं लोगों ने की और प्रदेश अध्यक्ष वे सारी बातें इस तरह
सुनते रहे जैसे उनका अभिनंदन-पत्र पढ़ा जा रहा हो। चेहरे पर वही दमकती आभा और
होंठों पर मुस्कान।
इन भाषणों के जवाब में अध्यक्ष ने बेहद चतुराई-भरा वक्तव्य दिया। बोले, "यह
बात तो बिलकुल सच है कि जिले की यह इकाई बिलकुल निष्क्रिय हो गई थी। कारण तो
मैं ही हूं, यह मैं जानता हूं। यह मेरी सबसे बड़ी कमजोरी रही कि आज आप जिनका
स्वागत कर रहे हैं उन्हें जिला इकाई सौंपने में मैंने इतनी देर की। इनके लिए
ये पद बहुत छोटा है और अब जिला इकाई ही नहीं, प्रदेश इकाई को भी इनका
मार्गदर्शन मिलेगा।"
अध्यक्ष खासे मोटे-मोटे शब्दों में देर तक मेरी तारीफ करते रहे। इसके बाद
उन्होंने जिला कार्यालय की दीवारों पर नजर दौड़ाई। जिला कार्यालय काफी पुरानी
और अर्द्ध-ऐतिहासिक इमारत का हिस्सा था। उसमें दो बड़े कमरे थे और एक बड़ा
हॉल था, जिसमें यह सभा हो रही थी। दीवारें मैली थीं और बहुत ऊंची छत जाले से
भरी हुई। प्रदेश कार्यालय कभी यहीं हुआ करता था। अध्यक्ष ने इस गंदगी पर खेद
जाहिर किया, फिर बोले, “पुताई के रंग का पैसा आप लोग मुझसे अभी ले लें।"
उन्होंने तत्काल जेब से सौ रुपए के पांच नोट निकालकर जिला समिति के
कोषाध्यक्ष की ओर बढ़ा दिए। उनके जाने के बाद उनकी निंदा का प्रसंग और तेज हो
गया। आज की इस सभा का कोई खास मुद्दा नहीं था, इसलिए चाय खत्म होने के बाद
सभा भी समाप्त हो गई। कुछ ज्यादा उम्र के लोग सीढियों से नीचे उतर गए, पर
भाषणों में तेज-तर्रार कुछ लोग बहुत देर तक वहां बने रहे। अब उन्होंने प्रदेश
अध्यक्ष के बारे में कुछ ज्यादा ही गंभीर आरोप शुरू कर दिए। दफ्तर के आसपास
फैले घने बाजार में सड़क पर खोमचे लगाने वालों को संगठित कर रहे फरीद मियाँ
खासे ही उत्साह में थे। कहने लगे, “आपने वो सूची ध्यान से देखी है जो अध्यक्ष
जी ने आपको दी थी?"
जिला समिति के प्रस्तावित सदस्यों की सूची को लेकर पार्टी कार्यालय के
बहुत-से लोग बहुत दिनों से उत्सुक थे। अपनी जगह थोड़ी ज्यादा महत्त्वपूर्ण
बनवाने के लिए वे लगातार कोशिश कर रहे थे। समिति का हर कोई मेरे लिए समान रूप
से महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि वे सभी मेरे लिए एक जैसे अजनबी थे। सूची में कुछ
महिलाएं भी थीं।
फरीद मियाँ बोले, "लिस्ट में शैला हेनरी का नाम इस बार सबसे नीचे है और कला
खन्ना का सबसे ऊपर। पिछली बार जब ज्ञानचंद अध्यक्ष हुए थे तो शैला हेनरी का
नाम सबसे ऊपर था और कला खन्ना का सबसे नीचे।"
बरामदे में हम लोगों ने चाय फिर मंगा ली, क्योंकि कथानक अब ज्यादा ही रोचक और
लंबा हो चुका था। पिछले साल गांधी पार्क में जब एक राष्ट्रीय नेता के लिए
जनसभा हुई तो कला खन्ना को प्रदेश अध्यक्ष जी ने मंच पर कुर्सी दे दी थी।
थोड़ी ही देर में लोगों ने देखा, शैला हेनरी लपककर मंच पर चढ़ीं और उन्होंने
माइक छीन लिया। लोगों के देखते-देखते वह सभा एक प्रहसन में बदल गई। शैला
हेनरी ने प्रदेश के अध्यक्ष की तरफ इशारा करके कहा, "जहां ऐसे बदचलन लोग हों
उस पार्टी का क्या होगा? जिला कार्यालय एक चकलाघर है जहां इनकी और कला खन्ना
की रासलीला होती है। मान्यवर, कार्यालय की अलमारी की तलाशी लीजिए। ये दोनों
वहां जो कुछ करते हैं, उसके सबूत के लिए नीचे के खाने में दर्जनों इस्तेमाल
किए हुए कंडोम मिलेंगे।"
प्रदेश अध्यक्ष के चेहरे की मुस्कुराहट पर कोई अंतर नहीं पड़ा था, पर कला
खन्ना ने उछलकर माइक छीना और चीखी, "तू जो अपने घर पर चकला चलाती है। हर
हफ्ते तेरे घर पर पुलिस का छापा पड़ता है। पार्टी ने जब होली और ईद मिलन
मनाया था तो जलसे के बाद तुझे पार्टी कार्यकर्ताओं ने किस हाल में पकड़ा था?
मान्यवर, ये शैला बिना कपड़ों के सफेद चादर लपेटकर भागी थी और ये अध्यक्ष जी
झाड़न लपेटकर भागे थे। इनके कपड़े..."
इतने के बाद पार्टी के कुछ कार्यकर्ता उन चीखती-चिल्लाती औरतों को मंच से हटा
ले गए थे। कमाल अध्यक्ष जी का था कि इस सबके बावजूद उन्होंने उसी स्थायी
मुस्कान के साथ बड़े असंपृक्त होकर जनसभा की कार्यवाही का संचालन किया था। आज
भी वे जानते थे कि ये सारी कहानियां लोग बहुत रस लेकर मुझे सुनाएंगे, पर इससे
वे चिंतित रहे हों, ऐसा बिल्कुल नहीं लगा।
कार्यालय की पुताई हो गई। जिला इकाई का काम चले और संगठन सक्रिय हो, इसकी
योजना बनने लगी। तभी उलझन खड़ी हो गई। प्रदेश अध्यक्ष सहाय जी ने एक नाम पर
अलग से जोर दिया था-नियाज अहमद। उनका कहना था कि नियाज बहुत काम के आदमी हैं
और वे खुद जिला अध्यक्ष बनना चाहते थे, पर किसी तरह मान गए। इसीलिए उन्हें
कुछ खास जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। यह प्रसंग एक ऐसी उलझन की शुरुआत थी जो
बढ़ती ही गई, किसी भी तरह कम नहीं हुई।
समिति में सबसे बड़े पद सिर्फ दो थे-उपाध्यक्ष या फिर महासचिव। उपाध्यक्ष
पहले से ही तीन थे। महासचिव भी नियुक्त हो चुके थे। नियाज अहमद अब वरिष्ठ
उपाध्यक्ष हो सकते थे। मैंने एक दिन उनसे सीधे बात की। वे बड़ी इज्जत से पेश
आए, पर उनकी आवाज बहुत सहज नहीं थी। वरिष्ठ उपाध्यक्ष के मेरे प्रस्ताव पर
उन्होंने खासी रुखाई से इनकार कर दिया, लेकिन अपनी सेवाओं का आश्वासन
उन्होंने दिया। इसी क्रम में उन्होंने यह भी बता दिया कि कब, कहां उनके ट्रक
और बसें पार्टी के लिए मुफ्त गईं। उनके घर की दरियां और चांदनियां आज भी
प्रदेश कार्यालय से वापस नहीं आईं।
मैंने सारी बात सहाय साहब को बताई। मुस्कुराते हुए वे बोले, “देखिए, आप पर
कोई दबाव नहीं है। हमने तो सुझाव दिया था। समिति में कौन हो कौन नहीं,
इसका निर्णय आपको ही करना है।"
मुझे अच्छा लगा। समिति के महासचिव रावत जी मुझे पहले दिन से ही पसंद आ गए थे।
मैंने उनसे मशवरा किया। वे चिंतित हो गए, “आखिर वही हुआ।"
"वही हुआ, मतलब?" मैंने पूछा।
थोड़ा संकोच दिखाते हुए रावत बोले, “छोड़िए साहब, आप कहां तक इस पचड़े में
पड़ेंगे। हां, सदस्यों की सूची का क्या हुआ? आपके उन पांच सौ सक्रिय सदस्यों
के नाम-पते रजिस्टर पर चढ़ाने होंगे न! आप भूल गए शायद!"
"हां, मैं सहाय से कहना ही भूल गया।"
"क्या मतलब, सहाय?"
"हां, सूची तो उन्हीं के पास है। उन्होंने ही बताया था कि पांच सौ सदस्य बन
गए हैं।" मैंने कहा।
"ओह! सदस्य उन्होंने बनाए हैं, तब छोड़िए।"
"क्यों? छोड़िए मतलब?"
“अब वह सब भूल जाइए। सहाय जी ऐसे ही सदस्य बनाते हैं। जब जरूरत होती है, बना
लेते हैं।" रावत ने कहा।
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