कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
मुजरा
यह सच है कि मैं दूसरे बहुत-से मुवक्किलों की तरह अदालत के परिसर में बहुत
अजनबी नहीं था, पर वह जगह ऐसी कोई सुहानी भी नहीं थी। गर्मी अभी बहुत ज्यादा
तो नहीं थी, पर जैसी वह जगह थी उसमें खल रही थी। चारों तरफ टिन के सायबान या
बांसों पर प्लास्टिक की चादरें बिछाकर तैयार किए गए छप्पर जैसे और उनके नीचे
बेहद पुराने तख्त। बदहवास वादियों की भीड़ और उस मौसम में भी काले कोट में
पसीने से तर दौड़ते-फिरते वकील। जिस वकील से मुझे मिलना था, वह था नहीं। उसका
बूढ़ा और लंगड़ाकर चलने वाला मुंशी बैठा था जो मुझे सख्त नापसंद था। सामने
वाले तख्त के जाफर और अदालत के फाटक के पास बैठने वाले दूसरे वकील गुफरान चाय
पीते हुए शियों-सुन्नियों पर चुहल कर रहे थे। मुझे देखकर उन्होंने एक चाय और
बोल दी, फिर जल्दी ही उन्होंने विषय भी बदल दिया। अब वे राजनीति पर आ गए।
मेरे नजरें चुराने के बावजूद मुझे चिढ़ाता हुआ-सा मेरे वकील का वह बूढ़ा
मुंशी बीच में आ गया, "बाबू जी, आप तो सुबह आए ही नहीं। कोर्ट को मैंने बड़ी
मुश्किल से समझाया। मुंशी को पटाया तब कहीं फाइल देखने को मिली। अरे, मैंने
कहा, खर्चा-पानी लेना हो तो लो, ऐसी क्या बात है?"
जिस बात से मैं बहुत चिढ़ता था वही हुई। मुझे मालूम था कि वह ठग अदालत में
झांका भी नहीं होगा और आज तो स्थिति ही दूसरी थी। मेरी फाइल ऊपर की अदालत में
भेजी जा चुकी थी। मुझे सिर्फ तारीख-भर जाननी थी। मुझे मालूम था कि झूठ बोलता
था और बिलावजह पैसे झटकने की कोशिश करता था और इस काम में वह खासा ही बेशर्म
हो जाता था। मैंने थोड़ी सख्त आवाज में कहा, "फाइल तुमने कैसे देखी? वो तो
ऊपर की अदालत चली गई?"
"वहीं तो देखी।" उसने फौरन बात बना दी, फिर बोला, "बाबू जी, इस बात पर चाय
पिलाइए। केस आगे चला गया है। बल्कि चाय के साथ कुछ खाऊंगा भी।"
लगा, इस धूर्त की जूते से पिटाई करूं। वह खुद भी सब कुछ समझ रहा था, पर हंसे
जा रहा था। मैंने जाफर और गुफरान से कहा, "आओ, जरा बार की
लाइब्रेरी तक चलते हैं। वहां कुछ देखना है।"
मुंशी समझ गया, बोला, "मैं कैंटीन वाले को बोल दूं?"
"अभी नहीं।" मैंने रुखाई से कहा, "मैं अभी आता हूं, तब तक वशिष्ठ को रोके
रखना।"
इस बार उसे बिना कोई मौका दिए हम तीनों चल दिए। लाइब्रेरी में कोई काम नहीं
था। वकीलों के संगठन की इमारत में कुर्सियां भी थीं और पंखे भी। हम लोग उस
अप्रिय व्यक्ति से बचने के लिए वहां आ गए। गुफरान से हमेशा जैसी चुहल जाफर ने
फिर शुरू कर दी। गुफरान खासा ही शरीफ-सा मुस्कुराता रहा। तभी जाफर को याद
आया, "हां भाईजान, आज चौक पहुंच रहे हैं न?"
"चौक? वहां क्या है?" मैंने पूछा।
"क्यों? वहां अंबेदकर साहब के मुजस्समे को अनवील किया जाना है। खासा बड़ा
जलसा कर रही है पार्टी। चीफ मिनिस्टर प्रेसाइड करेंगे। चीफ गेस्ट पार्टी
प्रेसीडेंट होंगे।"
"तो मैं वहां क्या करूंगा?"
"अरे वाह!" जाफर बोला, "आप एक अजीम हस्ती हैं।"
"अजीम कमबख्त कौन है। उन्होंने तो दावतनामा भी नहीं भेजा है।" मैंने संजीदा
होकर कहा। यह सिर्फ नेताओं का आयोजन था और मैं जानता था कि वहां अंबेदकर से
ज्यादा मुख्यमंत्री के लिए नारे लगाने वाले इकट्ठा हो रहे हैं। मेरे जैसे
लोगों की वहां कोई जगह ही नहीं थी। जाफर नाहक इस मुद्दे को तूल देने लगा।
लगभग एक ही बात बहुत तरह से दुहराने लगा।
गुफरान बोला, “जाफर, हम समझ गए भाई! चलो उठो! क्यों भाई साहब! इसे जब अपना
कोई केस याद आ जाता है तो सूई रेकॉर्ड में फंसने लगती है।"
हमलोग उठ गए। वहां ज्यादा बैठना वैसे भी नहीं था। बूढ़े मुंशी से पीछा न
छुड़ाना होता तो शायद हम लोग इधर आते भी नहीं। वहां से लौटा तो इसमें शक नहीं
कि एक हलकी-सी खिन्नता मन में पैदा हो चुकी थी। वे ऐसे मौकों पर आमंत्रित
करते, इसकी उम्मीद मुझे कभी नहीं थी, पर मेरी एक और पहचान भी बन गई थी। कुछ
महीनों के लिए मैं इस पार्टी का जिला अध्यक्ष भी बन गया था। एक हद तक
राजनीतिक महत्त्व मिल जाने का वहम तो हो ही चुका था। आज भी पार्टी के कुछ
नेता मिलने पर 'अध्यक्ष जी' संबोधित करते थे। यह संबोधन खासा ही हास्यास्पद
था, पर राजनीति की दुनिया में इस संबोधन का बहुत सम्मान था। पर इससे मैं कुछ
ही महीनों में मुक्ति पा गया था। जितना नाटकीय मेरा नगर अध्यक्ष बनना था उतना
ही असामान्य मेरा पार्टी छोड़ना भी था।
एक सुबह अचानक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष घर आए। वे खासी तेज चीज थे। संक्षेप
में हालचाल पूछने के बाद उन्होंने कहा कि यह खुशी की बात है कि आप दलित वर्ग
के हैं। हम चाहते हैं कि आप हमारी पार्टी के जिला अध्यक्ष का पद संभाल लें।
मैं उनके धंधे को जानता था। एक लंबे अर्से से वे विस्थापित गरीबों के लिए
आंदोलन करते आए थे। उनका अपना व्यवसाय भवन-निर्माण का था और अपने इस पेशे और
आंदोलन में वे अद्भुत तालमेल बैठा लेते थे। बेहद गरीब लोगों को किसी खाली
सरकारी जमीन में बसा देते थे। कुछ बरस बाद सरकार वह जमीन खाली कराने आ जाती
थी, तब वे गरीबों के अधिकारों को लेकर आंदोलन करते थे। आंदोलन के बाद सरकार
उन लोगों को कहीं न कहीं बसने की सुविधा दे देती थी। पर उस नई जगह वे गरीब
कभी नहीं पहुंचते थे। वहां एक नई कॉलोनी तैयार हो जाती थी और दूसरी बार
उजड़ने के लिए उन्हें अध्यक्ष जी किसी और खाली जमीन पर बसा देते थे।
उन्होंने पुलिस, प्रशासन और अखबार वालों से भी कुछ खास रिश्ते बना रखे थे और
आंदोलनों के लिए उनके पास एक निश्चित संख्या में जनता भी थी। उनकी
भवन-निर्माण कंपनी में करीब डेढ़ सौ लोग स्थायी रूप से काम करते थे और
पचास-साठ लोगों को वे नौकरी की उम्मीद पर अपने आसपास बनाए रखते थे। लोग भी
आंदोलन की बारीकियां समझने लगे थे। पुलिस देखकर उन्हीं में से कुछ लोग सड़क
पर लेटकर पलिस को हैरान करते थे और किसी दूसरे मौके पर वे ही प्रशासन से
धक्का-मुक्की भी कर लेते थे। जरूरत के अनुसार ये लोग गिरफ्तारियां भी दे देते
थे। पलिस उन्हें बसों मे भर लेती थी। बसों में चढ़ते वक्त वे इस तरह चीखते और
नारे लगाते थे जैसे वे सचमुच ही कोई आरपार की लड़ाई लड़ रहे हों, पर होता
सिर्फ इतना था कि पुलिस उन्हें पुलिस लाइन ले जाकर छोड़ देती थी। इस
गिरफ्तारी के नाटक के वक्त कुछ अखबार वाले उनकी तस्वीरें भी खींच लेते थे।
तस्वीर खिंचवाने की भी एक खास कला थी जो उन लोगों ने इतने दिन में सीख ली थी।
भले ही इधर-उधर बिखरकर मंगफली या भुने चने खा रहे हों, किसी व्यक्ति को कैमरा
लेकर आया देखते ही फौरन इकट्ठा हो जाते थे और हाथ हवा में फेंककर नारे लगाने
लगते थे।
उन दिनों पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष देश का दौरा कर रहे थे। उन्होंने
पार्टी अध्यक्ष बनते ही घोषणा की थी कि वे पार्टी संगठन को मजबूत करेंगे।
इसके लिए लगभग हर प्रदेश में जिलों तक की समितियों का पुनर्गठन कर रहे थे।
मेरे जिला अध्यक्ष बनाए जाने का भी यही राज़ था; मैं अध्यक्ष बन चुका था और
जिला कार्यालय में बैठने भी लगा था। एक दिन प्रदेश अध्यक्ष ने मुझे कुछ
रसीदें दीं। ये रसीदें उन पांच सौ लोगों के चंदे की थीं जिन्हें उनके अनुसार
मैंने पार्टी का सक्रिय सदस्य बनाया था। सक्रिय सदस्यता का चंदा दस रुपया था।
उन्होंने एक रसीद अलग से प्रदेश समिति के कोषाध्यक्ष को दी, जिसमें लिखा था
कि उन्होंने मुझसे पांच सौ सक्रिय सदस्यों का वार्षिक चंदा पांच हजार रुपए
मात्र सधन्यवाद प्राप्त किया। मैं थोड़ा अचंभित हुआ तो अध्यक्ष महोदय ने दबी
आवाज में बताया कि यह एक औपचारिकता थी पार्टी संविधान की। जिला इकाई के
पदाधिकारी होने का हक केवल उन्हें था जो पांच सौ सक्रिय सदस्य बना लें।
अध्यक्ष बोले कि मुझे उन पांच हजार की चिंता नहीं करनी है। दरअसल प्रदेश
अध्यक्ष को भी इसी तरह की शर्त निभानी होती थी, जिसे वे निश्चय ही निभा चुके
थे। वे कुछ इससे ज्यादा बड़ी जिम्मेदारियां भी पूरी करते थे, मसलन केंद्रीय
नेता, खासकर राष्ट्रीय अध्यक्ष के आने पर उन्हें अपनी वातानुकूलित मोटर दे
देते थे। उनके आने-जाने के टिकट की व्यवस्था अपने. खर्च से करते थे। उनके
संवाददाता सम्मेलन की खासी कुशलता से व्यवस्था करते थे। ऐसे काम ज्यादा लोगों
के वश के नहीं थे।
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