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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


एक दिन वे अपनी दुकान से घर लौटे तो दहशत से भर गए। अब तक उनके तीन बच्चे हो चुके थे। बीच वाली बच्ची को बैठाकर उनके बड़े बच्चे ने गले में एक फटा-सा कपड़ा लपेट दिया था और कहीं से आइसक्रीम की चपटी-सी लकड़ी की पट्टी उठा लाया था। इसे उसने उस्तरा बना लिया था और हजामत बनाने का खेल खेल रहा था।

“अबे हजामत ही बनानी है तुम सबको भी सालो!" वे चीखे थे और उन्होंने बच्चों को पीटा था। बीवी की समझ में नही आया था कि इस क्षोभ का अर्थ क्या था? आखिर और करेंगे क्या? क्या वे दाल मिल भी खोल सकते हैं?

वह दहशत उन पर कई दिन सवार रही थी। आखिर एक दिन उन्हें मौका मिल ही गया। वह कस्बा छोड़कर वे शहर आ गए। शहर में उन्हें एक छोटी-सी जगह रहने को मिल गई। अब वे अपना पिछला सब कुछ छोड़ देना चाहते थे।

मौका उन्हें अनायास ही मिला। कामेश्वर पंडित ने इस बीच दाल मिल के सामने सड़क के उस पार एक मकान बनवा लिया था। यहीं से अपनी बेटी की शादी की थी। इस शादी में उन्होंने सारे बारातियों की हजामत बनाई थी और यहीं उन्हें उनका चाहा अवसर भी मिला। गाने-बजाने के लिए पार्टी शहर से आई थी और इस गाने-बजाने के बीच उन्होंने भी अपना हुनर दिखाया था। यही पार्टी उन्हें शहर ले आई थी। अब वे गांव से अपना हारमोनियम भी ले आए थे। 'झमाझम पानी भरे' के अलावा उन्होंने जल्दी ही कुछ फिल्मी गाने भी सीख लिए थे। मगर इस संगीत पार्टी में उनका ज्यादा काम गाना नहीं, बजाना होता था, खास तौर से ढोलक। और अब उनकी एक नई लेकिन बीहड़ यात्रा शुरू हुई।

अपना उस्तरा, कैंची वगैरह उन्होंने कागज में लपेटकर संदूक में रख लिया था। खुद अपनी हजामत के लिए भी उन्होंने बाकायदा सेफ्टीरेजर और ब्लेड खरीद लिए थे। अब वे उस पहचान का सव कुछ अपने आप से दूर कर देना चाहते थे, जिसकी वजह से हर क्षण अपना सिर कंधों से उतारकर नीचे रखना पड़ता था। बच्चों को उन्होंने स्कूल भेजा और जव बच्चे पढ़ने लगे तो उन्होंने खुद भी कुछ पढ़ना शुरू कर दिया।

संगीत पार्टी का काम ज्यादा दिन नहीं चला, पर उन्हें एक तंबू-कनात वाले के यहां काम मिल गया। तंबू-कनात वाले के यहां सभी मजदूर अनपढ़ थे। अकेले नंदलाल ही ऐसे थे जिन्होंने कुछ अक्षर-ज्ञान कर लिया था, इसलिए दूसरों की तुलना में उन्हें ज्यादा महत्त्व मिल रहा था। तंबू-कनात वाले का बहुत-सा सामान लगातार एक दर्जी के यहां तैयार होता रहता था। उसकी देखरेख उन्हीं के जिम्मे थी।

सर्दियों के मौसम में उन्हें एक बार फिर अपने कंधों पर रखे सिर को बचाए रखने का मौका मिला। आर्यसमाज का सालाना जलसा था। वहां तंबू-कनात लगाने के बाद शाम को शुरू हुए कार्यक्रम में भी वे बैठ गए। उन्होंने दूर से बहुत लोगों को बहुत तरह के भाषण करते देखा था। पर कभी ध्यान नहीं दिया था कि वे क्या और क्यों बोल रहे हैं। उन्होंने कुछ धार्मिक आयोजन भी देखे थे, पर वे जानते थे कि उन आयोजनों का रिश्ता उनसे नहीं है। वे आयोजन सिर्फ उनके होते थे जिनकी हजामत वे बनाया करते थे।

आर्यसामज का यह आयोजन उन्हें पसंद आया। महोपदेशक का भाषण तो बहुत ही अच्छा लगा। महोपदेशक ने बड़े प्रभावशाली ढंग से मंदिरों, मूर्तियों, पुराणों को ढकोसला बताते हुए कहा कि इन्हीं बातों से समाज गर्त में जा रहा है। जातिवाद पर उन्होंने जो कहा वह सुनकर नंदलाल को पहली बार लगा कि उनके कंधों पर रखा हुआ सिर सचमुच उन्हीं का है और उसे वे वहीं रख सकते हैं। महोपदेशक महोदय ने कहा कि जाति तो कर्म से होती है, जन्म से नहीं। अगर कोई पढ़-लिखकर विद्वान् हो जाता है और जाति से शुद्र है तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए।

जीवन में पहली बार किसी की कही बातें उन्होंने बड़ी सावधानी से याद कर ली थीं। बीवी और बच्चों के सामने उन्होंने वे बातें कई बार कई तरह से दुहराई थीं। अगले रोज वे फिर महोपदेशक को सुनने गए थे। महोपदेशक अपने भाषण के बीच कुछ भजन भी गाते थे। भजन के साथ ढोलक बजाने वाला शायद अनाड़ी था। बिना किसी से कुछ कहे वे मंच तक गए और ढोलक खुद ले ली थी। बीच में महोपदेशक ने उन्हें देखा और मुस्कराए थे। आर्यसमाज नाम की संस्था से उनका रिश्ता ऐसे ही बना था।

यहीं उन्होंने बाकायदा और मेहनत से पढ़ना-लिखना सीखना शुरू किया। आर्यसमाज की इमारत में शाम के वक्त कुछ लोगों को दर्जी का काम सिखाया जाता था। वह उन्होंने सीखा ताकि सिलाई की एक दुकान खोल लें, पर ज्यादा रुचि या तो ढोलक और हारमोनियम में थी या फिर पढ़ने में। जल्दी ही उन्हें यज्ञ के कुछ मंत्र भी याद हो गए और तब उन्होंने 'संस्कार विधि' नाम की एक किताब खरीदी। उन्हें विश्वास था कि इस किताब का अच्छी तरह अभ्यास कर लेने के बाद वे यज्ञोपवीत या विवाह जैसे संस्कार जरूर करा लेंगे और उनके कंधों पर उगी उनकी अस्मिता उस्तरे से कटेगी नहीं।

यह विश्वास होने के बाद उनमें एक नया परिवर्तन आ गया। अपने छोटे-से घर की पुताई कराने के बाद उन्होंने कबाड़ी बाजार से ही खरीदकर दो पुरानी कुर्सियां भी रख लीं। वे कुछ ऐसे वाक्य किसी बहाने जरूर बोलते थे जिनका सुनने वालों पर असर पड़े, जैसे बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए या मनुष्य अपने कर्मों से ही अच्छा या बुरा बनता है इत्यादि। ऐसे ज्यादातर वाक्य वे आर्यसमाज के उत्सवों से सीख लेते थे। आर्यसमाज में भी उनका महत्त्व बढ़ गया था। वहां ज्यादातर लोग आसपास छोटा व्यवसाय या छोटी नौकरी करने वाले थे। उन्हें इतना समय तो मिल जाता था कि इतवार की सुबह की सभा में आ जाएं या महोत्सव में शाम गुजार लें, पर वहां बोली जाने वाली बातें याद करने का अवसर उनके पास ज्यादातर नहीं ही होता था। उनके लिए नंदलाल की क्षमताएं खासी महत्त्वपूर्ण थीं और लोग प्रभावित भी होते थे। नंदलाल के लिए यह स्थिति बहुत संतोष देने वाली थी। उत्साहित होकर वे भद्रता अर्जित करने में और ज्यादा मेहनत करते थे।

एक महोपदेशक के भाषण में उन्होंने सुना कि वैदिक मंत्र तीन स्वरों में गाए जाते थे। उन्होंने अकेले में उसका भी कुछ अभ्यास किया। एक इतवार को आर्यसमाज में होने वाले हवन में जिस वक्त बहुत-से लोग मंत्र-पाठ कर रहे थे, थोड़ा-सा पीछे बैठकर उन्होंने भी साथ-साथ मंत्र पढ़े। पता नहीं किसी ने ध्यान दिया या नहीं, पर कुछ इतवार इसी तरह मंत्रोच्चार करने के बाद एक बार वे थोड़ा आगे खिसक आए और उन्होंने भी आहुतियां दीं। अब उन्हें लगा, वे कामेश्वर पंडित से कहें-पंडित जी, देखिए, आपके आशीर्वाद से अब बहुत कुछ बदल गया है। पर वे वापस गए नहीं। उन्हें लगता था कि वहां उनका जो उस्तरा था वह उनके साथ शायद आज भी वही सलक करे। उस उस्तरे से अब वे बड़ी सावधानी से दूरी बनाए रखना चाहते थे। कभी-कभी उन्हें लगता था कि उस्तरे की धार बहुत ज्यादा तेज होती है। क्यों होती है इतनी तेज? वह चेहरे के बाल ही नहीं काटती, उसकी धार से उनकी गर्दन कहीं ज्यादा सफाई से कटती है।

एक दिन सहसा आर्यसमाज में होने वाली एक शादी के दौरान उनके सस्वर मंत्रोच्चार के बीच अचानक उनका वही उस्तरा उनकी गर्दन से आ लगा।

उस्तरे की एक विशेषता होती है। आपकी उंगली अगर सहसा उससे कट जाए तो एक क्षण के लिए आपको हलकी गुदगुदी-सी ही महसूस होगी, लेकिन एक क्षणांश के बीतते न बीतते एक जबर्दस्त टीस और जलन उभर आती है। बचपन में एक बार पिता के उस्तरे को हथेली पर तेज करने का खेल करते हुए उनकी हथेली कट गई थी। उस वक्त उन्हें ठीक ऐसा ही लगा था। वे हैरान हुए थे कि कटने के बाद उन्हें जो तकलीफ हुई थी वह उस वक्त क्यों नहीं हुई थी जब हथेली कट रही थी?

उस्तरे से कटना वे पहचानते थे। उनका मंत्रोच्चार कंठ में ही कहीं फंस गया। वे निश्चित नहीं थे कि गहरी तकलीफ न होने के बावजूद उनका सिर उनके कंधों पर है या नहीं।

शादी का जो आयोजन उस दिन था उसमें लड़के वाले के पक्ष के एक व्यक्ति को वे पहचान गए थे, क्योंकि उस व्यक्ति ने भी उन्हें पहचान लिया था। उस व्यक्ति को कोताहगर्दनिया कहा जा सकता था। बल्कि वह उससे भी ज्यादा ही कुछ था। गर्दन नाम की चीज उस व्यक्ति के शरीर में थी ही नहीं। उसका सिर उसके कंधों पर एक छोटे-मोटे टीले की तरह स्थित था। वह व्यक्ति कामेश्वर पंडित की बेटी की शादी में आया था। बारात के सारे लोगों के साथ नंदलाल ने उसकी भी हजामत बनाई थी और चूंकि रात के मनोरंजन में नंदलाल ने ढोलक ही नहीं बजाई थी बल्कि बहुत अच्छा गाया भी था, इसलिए उस व्यक्ति ने उन्हें पहचानने में भूल नहीं की।

विवाह की रस्म पूरी होने के बाद उस बिना गर्दन के व्यक्ति ने बहुत खुश होते हुए कहा था, "मैं तो देखते ही पहचान गया था। कैसे हो?"

नमस्कार का जवाब उन्होंने खासी सकपकाहट के साथ दिया था। वे खुद एक अनिवार्य तकलीफ से भर गए थे, पर अभी तक जाहिरा तौर पर कोई खास गड़गड़ी नहीं हुई थी। पर खाने के वक्त वह हो गई। आंगन में खाने का इंतजाम था। लोगों की तादाद ज्यादा नहीं थी। दोनों पक्षों और आर्यसमाज के लोगों को मिलाकर कोई पैंतीस लोग होंगे। आंगन के चारों ओर तह करके चांदनी बिछा दी गई थी। यहीं बैठकर वे भी खा रहे थे। सहसा उस गर्दनविहीन व्यक्ति ने पूछा, "भैया, तुम्हारा नाम क्या है? मैं भूल गया।"

उन्होंने नाम बता दिया। वह व्यक्ति बोला, "भाई, तुम गाते बहुत अच्छा हो। हमने मगनबाबू से कहा है। आज शाम आ जाओ। पता ले लेना। क्या बात है। ऐसा सुरीला गला है।"

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