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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


पैशाचिक


वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनका मकान आखिर गया कहां? समूचा मकान क्या यकायक गायब हो सकता था? क्या ऐसा भी संभव था कि सब कुछ वहां हो, बस सिर्फ उनका मकान कहीं विलीन हो गया हो? गली, गली के चबूतरे, मजार, पीपल का दरख्त, गंधाती हुई मोरियां, गली में खुलते कच्चे पाखाने, घरों से फेंका गया कूड़ा-सब कुछ तो था। गली के बाहर जाकर तिराहे से उन्होंने गली में फिर प्रवेश किया। फिर वही उलझन। इस बार वे सावधानी से हर चीज को पहचानते गए थे, पर नहीं दिखा तो उनका अपना मकान। जिसे ठीक-ठीक भरा-पूरा कहा जा सकता है, ऐसा मकान था। बीवी, बच्चे, एक छोटे मध्यवित्त परिवार का सामान। क्या ऐसा सचमुच मुमकिन हो सकता था कि बाकी सब कुछ वहां मौजूद हो और उनका मकान नदारद हो जाए, बीवी-बच्चों के साथ?

क्या उन्हें ही कोई भ्रम हुआ या वे किसी गलत गली में आ गए? क्या उनकी गली कोई दूसरी है? कहीं और है? धीरे-धीरे वे गली से बाहर आए। गली में जिस तरफ से वे प्रवेश करते थे, उधर एक तिराहा था और उस तिराहे से हटकर पांच गलियों का एक छोटा-सा चौक था। वे तिराहे तक ही नहीं, पांच गलियों के उस तंग से चौक तक वापस आ गए। यहां बीचोबीच एक झंडे का लोहे का दंड गड़ा हुआ था। उसे उन्होंने गौर से देखा। इस पर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को झंडा फहराया जाता था। चौक के एक कोने पर बहुत पुराना नीम का दरख्त था और दरख्त के तने से सटा एक छोटा-सा मंदिर। इसे भी उन्होंने पहचाना। इस मंदिर को वे पसंद नहीं करते थे, बल्कि अगर उनका बस चलता तो वे इसे तोड़ ही देते। वे आर्यसमाजी थे और मूर्तिपूजा का विरोध करते थे। उन्हें एक बार इस बात पर गुस्सा भी आया था कि आर्यसमाज के अध्यक्ष लाला देवकीनंदन इस मंदिर पर होने वाले भगवती जागरण को सुशोभित कर रहे थे।

इस मंदिर के पास उन्होंने धैर्य से अनुमान लगाया कि उनके मकान को कौन-सा रास्ता जाता है। वैसे तो सभी रास्ते एक-से ही थे। सभी जगह-जगह से खोदे जाकर ऊबड़-खाबड़ हो गए थे। सभी रास्तों पर लोगों ने अपने चबूतरे आगे खिसका लिए

थे। सभी पर रास्ता घेरकर सौदा लगाने वाले ठेलों, चारपाइयों और ईंटों के ढेर थे। इन्हीं इंटों के ढेर से कभी-कभी चुपचाप कोई चबूतरा और चौड़ा हो जाता था और नशे की हालत में झगड़ते हुए लोग इन्हीं ईंटों से एक-दूसरे को जख्मी भी कर देते थे।

इस बार वे कोई भूल नहीं करना चाहते थे। आखिर उम्र हो गई है। उम्र बढ़ने पर थोड़ा-बहुत स्मृति-भ्रंश होता ही है। पर इतना तो नहीं हो सकता। और इसे स्मृति-भ्रंश भी क्यों कहा जाए? कितनी ही बातें वे सोचते रहे थे इस बीच। उन्हें तंबाकू खरीदना था और वे उस दुकान पर जा खड़े हुए थे, जहां से वालों में लगाने वाला तेल खरीदते रहे हैं। तंबाकू खरीदते-खरीदते उन्होंने सोचा, वे कुछ बादाम जरूर खरीद लेंगे। पैसे लाए होते तो खरीद भी लेते। चार-पांच बादाम खाने से दिमाग में ताकत आती है, उन्होंने सोचा था। खैर, उधर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। फिलहाल घर का रास्ता न भटक जाएं यही ज्यादा जरूरी है। इधर-उधर से ध्यान हटाकर उन्होंने अपनी गली की परिचित निशानियों पर केंद्रित करना चाहा।

जल्दी ही उनकी उलझन बढ़ गई। दिमाग में गली की पहचानी निशानियों की जगह एक संगीत गूंज रहा था और संगीत भी वो, जिससे वे नफरत करते थे, भगवती जागरण का बेहद कर्कश संगीत। उस छोटे-से चौक के नन्हे-से मंदिर को देखकर उन्हें वह याद आया था और उनके भेजे के अंदर बजे जा रहा था, घड़ियाल, झांझ, खड़ताल, ढोलक और हारमोनियम के साथ। उन्होंने उपेक्षा से सिर झटका, जैसे माथे पर बार-बार बैठ रही किसी जिद्दी मक्खी को उड़ा रहे हों। पर वह गाना एक क्षण के लिए अलग होकर फिर उनके कपाल से आ चिपका। उस संगीत का शोर बहुत ज्यादा था, इतना ज्यादा कि बाकी किसी चीज की जगह वह उनके दिमाग में नहीं छोड़ रहा था। कोई तस्वीर भी वहां टिक नहीं पा रही थी। इस शोर के चलते सड़क को पहचानने में दिमाग कैसे लगे आखिर? इस बार, इस बात तो घर पहुंचना ही है। वे अपना घर खोज नहीं पा रहे, यह बात अभी तक किसी और को पता नहीं थी। उन्होंने आसपास देखा। हल्लो सब्जी वाला अपने ठेले पर रखी सब्जी नाली के पास लगे हैंडपंप से भिगो रहा था। उससे वे खुश नहीं थे। वह हर सब्जी का दाम ज्यादा बोलता था और उन्हें लगता था कि वह सिर्फ उन्हीं से ज्यादा दाम बोलता है। शायद उनसे चिढ़ता है। पर वह उन्हें बाकायदा नमस्ते भी करता था। उन्हें देखते ही उसने नमस्ते की और सब्जी पर पानी के छींटे मारने लगा। उसे मुस्कुराकर जवाब देने के बाद वे आगे बढ़ आए। बहत जोर-जोर से फिल्मी गाने बजाता हुआ मद्दी तंबू-कनात का सामान संभाल रहा था। उससे उनका कई बार झगड़ा हो चुका था। आर्यसमाज के उत्सवों के लिए तंबू-कनात वही लगाता था और हर बार कोई न कोई घटियापन करता रहता था। चाट वाला पन्नालाल भी दिखा। उसके एक कमरे के मकान में उसके नहाने-धोने की जगह भी थी, खाना बनाने की भी और सात बच्चों सहित सारे के सारे सोते भी वहीं थे। अपनी चाट का सामान वह छत पर बनाता था। इस वक्त अपने ठेले से वह देगचियां और मसाले उतार रहा था।

उन्होंने ध्यान दिया कि उनके दिमाग में गूंजता संगीत गायब हो गया है। उन्हें खासा संतोष हुआ। अब वे यह भी भूल जाना चाहते थे कि वे अपना मकान भूल गए हैं और फिर से खोजने की कोशिश कर रहे हैं। शायद इस तरह सहज हो जाने पर वह दुर्घटना दुबारा न हो। वे अब इत्मीनान से आगे बढ़े। उन्हें विश्वास हो चुका था कि इस बार अपने आप उनके कदम उनके घर के सामने ही पहुंचकर रुकेंगे।

अब उन्हें अपने आप पर थोड़ी हंसी आई। गनीमत है कि उन्होंने घबराहट में किसी से कहा नहीं कि वे अपना घर भूल गए हैं।

पिछले कुछ अरसे से उनके साथ कुछ गड़बड़ियां होने लगी थीं, पर वे उनका सामना साहस से कर रहे थे। उन्होंने एक बार गौर किया कि घर में जहां वे पेशाब करते थे, वहां चींटे लगने लगे हैं। उन्होंने हिकमत और वैद्यक की बहुत-सी पुरानी किताबें इकट्ठी कर रखी थीं। कई रोज उन्हें उलटने-पलटने के बाद मालूम हुआ, यह मधुमेह की बीमारी की निशानी है। अब उन्होंने उसका इलाज शुरू किया। वे ढोलक और हारमोनियम बहुत अच्छा बजाते थे। दोनों बाजे बहुत अच्छी हालत में रखते थे। पर मधुमेह के लिए उन्होंने अपने उस तबले का दायां हिस्सा खोल डाला, जिसे उन्होंने कुछ दिन पहले ही खरीदा था। चमड़े की डोरी और मढ़ी हुई खाल के साथ तबला मिलाने वाले लकड़ी के गट्टे एक थैले में बांधकर सावधानी से रख लिए थे। तबले में वे रात को पानी भर लेते थे। वही पानी वे दूसरे दिन पीते थे। इसके अलावा वे जामन के पेड़ की छाल ले आते थे। उसे वे चंदन की तरह हर सुबह घिसते थे और पी लेते थे। यह सब वे करते रहे और किसी-किसी दिन पेशाब में चींटे लगते नहीं दिखते तो वे खुश भी होते थे। पर दो-चार रोज बाद चींटे फिर लगने लगते। एक दिन रास्ते में उन्हें चक्कर आ गया। सब कुछ बहुत तेजी से घूमा और वे बुरी तरह लड़खड़ाए, फिर एक खंभे का सहारा लेकर पास की दुकान के चबूतरे पर बैठ गए। दुकानदार ने उन्हें एक गिलास पानी पिलाया। सुस्थिर होकर वे घर लौटे और अपनी किताबें फिर खोल लीं। किताबों में देखकर कई दिन तक पालक का रस पीते रहे और दुबारा चक्कर नहीं आया तो खुश हुए थे। तबले को दवा में बदल लेने के बाद वे अब ढोलक पर ज्यादा निर्भर करते थे।

वे पेशेवर वादक नहीं थे। गांव में ही उन्होंने नन्हकू कहार से ढोलक सीख ली थी। बाद में उन्हें शहर के कबाड़ी बाजार में एक पुराना हारमोनियम मिल गया था, जिसे वे साइकिल के पीछे बांध ले आए थे। इसका भी अच्छा अभ्यास हो गया। उनके आसपास के लोग कहते थे कि उनके हाथों में नाई होकर भी संगीत के उस्तादों का फन है। उन्हें लगता था, वे जल्दी ही सचमुच उस्ताद हो जाएंगे और उस्ताद हो जाने के बाद उनके अस्तित्व में घुसा हुआ एक पिशाच उन्हें मुक्त कर देगा। यह एक ऐसा पिशाच था, जो गुणसूत्र की तरह उनके पिता से उन्हें मिला था। कभी-कभी कोई अभागा ऐसा भी पैदा हो जाता है, जिसे अपने वाल्दैन से नाक, मुंह, आंख, रंग-रूप के ही नहीं, किसी और चीज के अनचाहे गुणसूत्र भी मिल जाते हैं, जैसे किसी रोग के गुणसूत्र। लगभग वैसा ही गुणसूत्र उन्हें भी मिला था-नाई होने का गुणसूत्र। जब तक वे छोटे थे, उस गुणसूत्र का उन पर सीधा कब्जा नहीं हुआ था। साथ खेलने वाले बच्चे कभी-कभी मजाक में अपनी हथेली पर उंगली से उस्तरा तेज करने का अभिनय करते थे और वह बहुत जल्दी समझ जाता था कि उनका इशारा क्या होता था। तब तक वे नाई के बच्चे भर ही थे। पर वे जल्दी ही बड़े हो गए थे। दूसरे बच्चों की तुलना में उनसे पहले, उनसे कम उम्र में ही। पिता बीमार थे और चौदह बरस की उम्र में ही उन्हें पंडित राधेश्याम के साथ शहर जाना पड़ा था, एक शादी के सिलसिले में। नाई क्या होता है, उसे क्या करना होता है, उसे कैसे उठना-बैठना होता है, यह सब वे एक दिन में सीख गए थे।

गनीमत है, पिता जल्दी ठीक हो गए और गले में आ पड़ा तौक उन्होंने फिर पिता को ही सौंप दिया था। पिता भी इस बात से नाखुश नहीं थे, बल्कि उन्हें यह अच्छा ही लगता था कि आसपास के गांवों में भी उनका बेटा ढोलक या गाहे-ब-गाहे हारमोनियम बजाता था और अच्छा ही बजाता था। उसका गला भी बुरा नहीं था, इसलिए कभी-कभी वह गाता भी था-'कौनौ अलबेले की नार, झमाझम पानी भरे'।

उनकी शादी हुई तो उनके पिता उन्हें बहू के साथ कामेश्वर पंडित की हवेली ले गए। कामेश्वर पंडित ब्राह्मण थे, पर किसी लठैत ठाकुर की अदा से रहते थे। खेती तो थी ही, कस्बे में दाल मिल भी लगा रखी थी। वे उन्हें देखकर जोर से हंसे। अपना आशीर्वाद दिया, फिर बोले, "भई जब आए हो तो कुछ हो जाए। वो क्या गाते हो, झमाझम पानी भरे।"

फरमाइश होते ही पिता दौड़कर उनका बाजा ले आए। गाना सुनकर कामेश्वर पंडित ने गाने की तारीफ की और एक बार फिर आशीर्वाद दिया, फिर पिता से बोले, “अब तो बेटा जवान हो गया है। तुम्हारा बोझ हल्का करना चाहिए। क्यों भाई? ऐसा करो, इसको लेकर कल हमारी दाल मिल पर आ जाओ। मिल के सामने सड़क के किनारे हमारी काफी जमीन है। कई लोग दुकानें खोले हुए हैं। थोड़ी-सी जगह ये भी ले ले। वहां एक सैलून खोल ले। हजामत की दुकान वहां है महीं। खूब चलेगी। कल आ जाना।"

वे पिता के पीछे-पीछे घर लौटे। पिता बेहद खुश थे, पर उन्हें लगा, जैसे यह एक साजिश है, एक बेहतर काम से दूर रखकर उन्हें उस्तरे के साथ बांध देने की।

उनकी दुकान कामेश्वर पंडित की दाल मिल के पास खासी ठीक चली। दुकान से उन्होंने समझौता कर लिया था, पर दुकान के माथे पर लगा नामपट्ट उन्हें खलता था-'हेयर कटिंग सैलून, मास्टर नंदलाल नाई। नामपट्ट भी चूंकि कामेश्वर पंडित ने ही बनवा दिया था, इसलिए वे उसे उतार नहीं सकते थे, पर नाई होने की ऐसी घोषणा उन्हें कष्ट देती थी। उनके पिता ने उनका यह सैलून देखा तो बहुत खुश हुए थे। उनके वंश में पहली बार किसी की ऐसी दुकान खुली थी। और इस खुशी ने नंदलाल को और ज्यादा उदास कर दिया था। वे संगीतज्ञ यानी गायक-वादक हो जाते, इसकी कोई कोई खास कल्पना उन्होंने नहीं की थी, पर जितनी देर वे बजाते या गाते थे, उस्तरे की धार उनकी गर्दन से दूर हट जाती थी। यह उस्तरा अजीब चीज था। उनके सामने कुर्सी पर बैठे आदमी की हजामत बनाता था, पर हजामत बनाने से पहले बड़ी सफाई से उनकी अपनी गर्दन काटकर उनका स्वाभिमान ब्रश, कंघी, पानी की पिचकारी और कैंची के बीच रख देता था। हर शाम उन्हें अपने धड़ से अलग हो गया स्वाभिमान दुबारा कंधे पर लगाना पड़ता था और तब वे पागलों की तरह देर तक ढोलक बजाते थे।

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