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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


"क्या कर रही हो?" पास बैठे आदमी ने उसे टोका। लड़की बिना कोई उत्तर दिए कपड़े की परतें खोलती रही। आदमी ने फिर कहा, "क्या कर रही हो? उसे तकलीफ होगी!"

लड़की इस बार रुक गई। वैसे बच्चा परतों में से लगभग बाहर आ चुका था। उसका रंग काला नहीं था, लेकिन कमर से नीचे के हिस्से पर मोटे काले चमड़े के सैकड़ों पैवंद की तरह काली चिपचिपी पपड़ियां जमी थीं। वह शायद रक्त था। उस पर लिपटे हुए कपड़े पर भी चौड़े-चौड़े दाग थे। लड़की उसे गौर से देखती रही, फिर होंठों ही होंठों में बुदबुदाई, "वहां ठीक था...!"

"मगर...!" कहते-कहते आदमी रुक गया, जैसे उसके अंदर कुछ उछलने लगा।

कौवा ठीक से कुछ समझा नहीं। हां, उसे इतना जरूर लगा कि बच्चे को शायद चोट लगी है। लड़की के सामने बैठा एक आदमी उस बच्चे की ओर झुका, फिर लड़की के पास बैठे बूढ़े आदमी से बोला, "इसकी पट्टी नहीं कराई तुमने?"

“पट्टी?" लड़की के करीब बैठे बूढ़े की उलझन शायद थोड़ी ओर बढ़ गई, "वो रो पड़ा था न...ओर फिर बात यह है..."

“हां, यह बात तो है!" सामने वाला आदमी एक क्षण के लिए चुप हुआ, फिर कौवे को अपनी ओर मुखातिब देखकर वह बोला, "देखिए न साहब, मैं आपसे ही कह रहा हूं...मैं आपको बताऊं, वैसे मैं उन्हें मार देता। वे लोग तोपें लेकर आ गए थे न! इतनी बड़ी तोप मैंने पहली बार देखी थी। और जनाब, तोप की आवाज आप जानते हैं, कैसी थी? अब मैं आपको क्या बताऊं, समझ लीजिए, जैसे चावल की देगची कोई आपके कान में घुसेड़ दे!"

वह कहते-कहते उत्साह में आ गया था। कौवे को भी यह अच्छा लगा। तोप का जिक्र उसे रोचक लगा। कमिश्नर साहब की कोठी के सामने उसने एक भद्दी-सी तोप रखी हुई देखी थी। वह अलाउद्दीन खिलजी की तोप थी, किसी से उसने सुना था। मगर उस तोप को उसने चलते हुए कभी नहीं देखा था। कैसी आवाज होती होगी? उसने उबलते चावल की देगची कान में घुस जाने की कल्पना की। तभी उसे उस बच्चे की याद आ गई, जिसने उसकी पिंडली में काटा था। उसने घूमकर देखा, अजीब बात थी कि वह बच्चा भी अभी तक उसे ठीक उसी तरह सफेद आंखें फैलाए घूरे जा रहा था। कौवे को अपनी ओर घूमा देखकर उसके जबड़े ने दुबारा एक हलकी-सी जुबिश ली। कौवा डरा, लेकिन चिढ़ भी गया, "अरे, ये बच्चा है, या क्या है?"

बात करने वाले आदमी को व्यतिक्रम से थोड़ी असुविधा हुई, फिर भी उसने कहा, "ओह, वो! पता नहीं कहां से आ गया? हर किसी को काटने लगता है। मेरा खयाल है, इसका परिवार वहीं समाप्त हो गया।"

“वहीं? वहीं कहां?" कौवे ने ताज्जुब से पूछा।

“अरे, वही तो मैं बता रहा था। उन लोगों ने तोप चला दी थी न! पूरी मिलटरी थी। तोप इतनी बड़ी थी कि उसकी सूंड़ में..."

इसी वक्त उसके साथ बैठ युवती अचानक चीख पड़ी। उस आदमी को यह अच्छा नहीं लगा। युवती ने गोद के बच्चे को सामने फैला दिया। उस आदमी ने बच्चे को दुबारा उसकी ओर हटाते हुए कहा, "ठीक तो है! कहा न कि अभी उसे ढके रहो, कैंप पहुंचकर पट्टी करा लेंगे। अब आप ही कहिए न, बच्चे को गोली लगी है, भाग-दौड़ मची थी, भला ऐसे में मलहम-पट्टी कहीं ठीक तरह से हो भी सकती थी? एक बात और भी है। अब अगर कोई फोटो खींचने वाला ही आ जाए तो वह ठीक से फोटो ले लेगा न! पट्टी बंधी हो तो क्या पता, खरोंच लगी है या गोली लगी! वहां तो एक फिल्म भी खींच रहा था। कपड़े तो हम भागते वक्त घर पर ही छोड़ आए थे, रास्ते में उन्होंने बर्तन भी छीन लिए थे।"

कौवे ने सुना था कि सीमा के उस पार कहीं भारी गड़बड़ हुई है। उसने पूछा, "आप लोग शरणार्थी हैं?"

"हां, और क्या? हमें कंबल भी मिलने वाले थे, पर अब सुना है कि कैंप
पहंचकर मिलेंगे। एक बर्तन और एक कंबल देंगे।"

"सब लोगों को देंगे कंबल?" कौवे ने ताज्जुब से पूछा।

"फिर क्या? सभी लोगों को देंगे। चावल और मछली भी शायद मिले। थोड़ा-सा सरसों का तेल भी दे देते तो अच्छा था। आप क्या यहां स्टेशन पर काम करते हैं?"

"मैं? नहीं, मैं...मैं भी शरणार्थी हूं।"

बाहर कुछ अजीब किस्म की हलचल मच गई। काफी तेजी से भाग दौड़ हो रही थी। दूर कुछ पुलिस की सीटियां जैसी भी बज रही थीं। कौवे को इस बार ज्यादा चिंता नहीं हुई, क्योंकि स्थिति समझने के बाद वह इस बात से खुश ही हुआ कि उसे अचानक जबर्दस्ती ट्रेन के अंदर धकेल दिया गया था। वह कंबल के बारे में सोच रहा था। दिन उसका काफी अच्छा कट जाता था, लेकिन रात को सर्दियों में खासी तकलीफ होती थी।

बूढ़े ने अपनी बात का सिलसिला दुबरा शुरू ही किया था कि डब्बे के दरवाजे के अंदर एक पर एक कई आदमी घुस आए। उनके साथ दो वर्दी वाले अफसर भी थे। वे लोग काफी साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए थे।

“ये सारे शरणार्थी हैं?" साफ कपड़े वालो में से एक ने वर्दी वाले से पूछा।

“जी हां।" वर्दी वाले ने कहा, "आप जल्दी से सवाल पूछ लीजिए, ट्रेन के चलने का वक्त हो रहा है।"

“आप कहां से आ रहे हैं?" उनमें से एक ने कौवे से पूछा।

"मैं? मैं शरणार्थी हूं। रिफ्यूजी। उन्होंने जनाब, तोप चला दी थी। उस बच्चे को गोली भी लगी थी...वो जो उधर है...उस औरत की गोद में। उन्होंने तोप चला दी थी। आवाज ऐसी होती है, जैसे चावल की देगची कोई आपके कान में घुसेड़ दे।"

बूढ़ा आदमी अब तक उठकर खड़ा हो गया था। बोला, "आप लोग अखबार वाले हैं न? मैंने ही सुनी थी तोप की आवाज।"

"हां, उसने भी सुनी थी, मैंने भी सुनी थी।" कौवे ने कहा।

"आप कहां के रहने वाले हैं?" पत्रकार ने पूछा।

"मैं, मैं भी वहीं का हूं न! मैं तोप के बारे में बता रहा था..."

“आप मुझसे पूछिए न साहब!" बूढ़े आदमी ने बीच में टोका, “अभी तो इसकी मलहम-पट्टी नहीं हुई है। बच्चे की जांघ में गोली लगी थी। आप खुद देख सकते हैं..."

"अरे!" अचानक एक पत्रकार चीखा। उसकी पिंडली में भी उस काले बच्चे ने दांतों से काट लिया था। पत्रकार बेहद खीझ गया। और कोई वक्त होता तो
उसे चांटा मार देता। प्लेटफॉर्म पर सहसा काफी शोर होने लगा। कुछ लोग शरणार्थियों पर उनकी सरकार के अत्याचार के विरोध में प्रदर्शन करने आ गए थे। प्रदर्शनकारियों ने बड़े-बड़े झंडे और पोस्टर उठा रखे थे।

बूढ़ा इस व्यतिक्रम से असंतुष्ट हो गया, लेकिन उस काले बच्चे में अचानक एक अजीब परिवर्तन हुआ। जानवर की तरह रेंगने की बजाय वह दोनों पैरों पर खड़ा हो गया, फिर जैसे उत्साहित होकर दरवाजे की ओर लपका। रास्ते से कौवा फुर्ती के साथ अलग हो गया। पत्रकार हटा नहीं था, लिहाजा उसकी कलाई दोनों पंजों से पकड़कर बच्चा दांत मारने जा ही रहा था कि वह भी झटककर अलग हो गया। बच्चा डब्बे के दरवाजे तक आ गया। प्रदर्शनकारी शरणार्थियों का उत्साह बढ़ाने के लिए बिल्कुल करीब आ गए थे। इतने छोटे बच्चे को दरवाजे पर देखकर झंडा हाथ में लिए हुए एक प्रदर्शनकारी ने अंदर की ओर झुककर बच्चे के गाल पर हाथ फेरा। बच्चे ने फुर्ती के साथ पलटकर उसकी हथेली पर जोरों के साथ काट लिया। प्रदर्शनकारी तिलमिला गया। उसके हाथ का झंडा नीचे गिर गया। बच्चे ने झंडा उठा लिया। झंडा लेकर वह बेहद खुश हो गया। डब्बे के दरवाजे के करीब वह झंडा ऊंचा करके दो-तीन बाद बंदर की तरह उछला और पूरे बल से चिल्लाया, "नहीं चलेगा...नहीं चलेगा...!"

पत्रकारों के लिए यह खास दृश्य था। कौवा और बूढ़ा निराश हो गए। पत्रकारों को अंतिम बार आकर्षित करने के लिए बूढ़े ने एकाएक युवती की गोद से बच्चे को छीना और पत्रकारों की ओर बढ़ाते हुए बोला, “आपको यकीन नहीं आएगा जनाब..."

लेकिन इसके आगे वह बोल नहीं सका, जैसे उसे किसी ने जमा दिया हो। उसकी आंखें फटती चली गई। कुछ देर वह बच्चे को पत्रकारों की ओर बढ़ाए अवाक् खड़ा रहा, फिर उसे सीने से भींचकर रो पड़ा। बच्चा मर चुका था।

पत्रकार इसके लिए तैयार नहीं थे। ठीक इसी वक्त ट्रेन की सीटी बजी। वर्दीधारी आदमी पत्रकारों को नीचे उतारने लगे। बच्चा उसी तरह नारे लगाए जा रहा था। नीचे जाते हुए पत्रकारों और बूढ़े की ओर कौए ने बारीकी से देखा और एक पत्रकार से आहिस्ता से कहा, “सुनिए...कंबल...आपका क्या ख्याल है, कंबल सभी शरणार्थियों को मिलेंगे न? मैं भी शरणार्थी हूं!"

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