नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
जयन्त : कहाँ?-क्या किसी काम से गया है?
शोभा : नहीं, नाराज़ होकर!
जयन्त : क्यों, क्या बात हुई?
शोभा : जयन्त, तुम साहनी साहब से कह दो कि वे जलाई से किसी और प्रिंसिपल का
इन्तज़ाम कर लें। मेरे लिए यह काम करना सम्भव नहीं होगा।
जयन्त : क्यों पागलों-जैसी बातें कर रही हो? बताती क्यों नहीं क्या बात हुई है?
शोभा : (कुछ ठहरकर) तुम तो जानते ही हो, ये शुरू से ही मेरे इस काम के ख़िलाफ़
थे। मैंने एक तरह से इनकी इच्छा के विरुद्ध ही इसे लिया था। सोचती थी शायद
इन्हें मेरी योग्यता पर विश्वास नहीं है, इसीलिए ये विरोध कर रहे हैं। पर मैंने
अच्छी तरह काम सम्हाल लिया, तब भी ये नाखुश ही हैं।
जयन्त : साहनी साहब तो जुलाई से तुम्हारी नौकरी पक्की कर रहे हैं, और तुम हो कि
काम छोड़ने की बात कर रही हो।
शोभा : सब बेकार है जयन्त। एक समय था जब ऐसी तारीफ़ों को सुनकर मैं सारे घर में
नाची-नाची फिरती थी। पर अब तो मुझे जैसे इन सबसे डर लगता है। लगता है, जैसे
जितना-जितना ऊपर से बढ़ती जा रही हूँ भीतर से उतनी ही मेरी जड़ें कटती जा रही
हैं, मैं अपनी धरती से उखड़ती जा रही हूँ।
जयन्त : तो इसमें इतना दुखी होने की क्या बात है? यह तो बहुत ही स्वाभाविक है।
अरे, पौधा छोटा होता है तो हम उसे गमले में रखते हैं, जब बढ़ जाता है तो जड़ से
उखाड़कर धरती में नहीं गाड़ देते?
शोभा : नहीं जयन्त, मैंने तो यही तय किया है कि मैं यह काम छोड़ दूंगी। अपने घर
की सुख और शान्ति यों नष्ट नहीं होने दूंगी।
जयन्त : अजित ने कहा है तुमसे कि यह काम छोड़ दो।
शोभा : कहने के पचास ढंग होते हैं, वे सभी तो अपना रखे हैं।
जयन्त : मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था।
शोभा : पर क्यों, आखिर क्यों? जब मैं अच्छी तरह से यह काम सम्हाल रही हूँ, तब
क्यों?
जयन्त : क्योंकि वह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि तुम्हारी अपनी भी कोई जगह हो,
प्रतिष्ठा हो। मिसेज़ अजित की तरह ही तुम्हें देख सकता है, देखना चाहता है।
श्रीमती शोभा देवी की तरह नहीं।
शोभा : लेकिन श्रीमती शोभा मिसेज़ अजित से भिन्न कहाँ है, वह तो मैं हर हालत
में ही रहूँगी!
जयन्त : पर अजित तो ऐसा नहीं सोचता है न। (कुछ ठहरकर) जानती हो, वह आजकल भीतर
ही भीतर तुमसे ईर्ष्या करने लगा है!
शोभा : कैसी बातें करते हो जयन्त? मुझसे क्या ईर्ष्या करेंगे भला! ऐसा मुझमें
है ही क्या?
जयन्त : तुम अपने आपको चाहे कुछ न समझो, पर बाहर तो तुम्हारी प्रतिष्ठा है ही।
डिग्री कॉलेज की प्रिंसिपल होना-
शोभा : मेरी प्रतिष्ठा है तो क्या उनकी नहीं है? आख़िर मैं उनसे भिन्न तो नहीं
ही हूँ।
जयन्त : (सिगरेट सुलगाते हुए) शोभा, तुम अजित को पत्नी की तरह देखती हो न, सो
कुछ बातों पर तुम्हारी नज़र न जाना स्वाभाविक ही है। वरना ईर्ष्या अजित के खून
में मिली हुई है। सारी दोस्ती के बावजूद वह मुझसे हर बात में ईर्ष्या करता था,
आज भी करता है। वह जो भी काम करता है, ईर्ष्या या होड़ की भावना से ही करता है।
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