नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
|
180 पाठक हैं |
स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
(शोभा देखती रहती है मानो बात को समझ नहीं रही हो।)
जयन्त : तुम्हारी शादी के एक साल बाद मैंने शादी की। मीना बी. ए. पास थी तो
तुरन्त उसने तुम्हारी पढ़ाई शुरू की और एम.ए. करवाया। पहले उसे अपनी नौकरी से
ऐसी शिकायत नहीं थी, पर जब से मुझे अंग्रेजी कम्पनी में काम मिला तब से-
शोभा : हो सकता है तुम्हें लेकर उनके मन में ईर्ष्या हो, पर मुझे लेकर ईर्ष्या
करें यह बात तो-
जयन्त : समझ में नहीं आती, क्यों? आएगा शोभा, यह सब भी समझ में आएगा।
शोभा : मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आता मैं क्या करूँ? जितनी कोशिश करती हूँ
उन्हें खुश करने की, वे उतने ही नाराज़ होते जाते हैं। तुम्हीं बताओ आख़िर किया
क्या जाए?
जयन्त : (एकाएक उठकर पर्दे खींच-खींचकर खिड़कियाँ खोलने लगता है) अब तो धूप
ख़त्म हुई, खिड़कियाँ तो खोलो। भीतर कितनी घुटन हो चली है। वाह! बाहर तो बड़ा
अच्छा हो रहा है! (शोभा से) अजित कब तक लौटेगा?
शोभा : पता नहीं!
जयन्त : काम छोड़ने की बात भी मत सोचो। लगता है अब एक दिन बैठकर मुझे अजित से
बात करनी पड़ेगी। बस यही है कि आजकल वह बात को सीधे ढंग से लेता नहीं। ताने
कसेगा, टेढ़ी-टेढ़ी बातें करेगा, और कोई बस नहीं चलेगा तो भन्नाएगा-बकने
लगेगा-। खैर, मैं न उसके गुस्से से डरता हूँ न बकने से। यों भी बहुत दिनों से
मैं सोच रहा था बात करने की-अब कर ही डालूँ।
(एकाएक शोभा फूटकर रो पड़ती है, सिर दोनों हथेलियों में छिपा लेती है।)
जयन्त : (उसके पास आकर सिर पर हाथ फेरते हुए) अरे, यह क्या, तुम रो रही हो
शोभा? इस तरह बचपना नहीं करते। रोने से तो कुछ होगा नहीं, बैठकर बात करेंगे।
मैं अजित से बात करूँगा। जाओ, उठकर मुँह धोकर आओ। चलो उठो!
(शोभा थोड़ी देर पल्ले से आँसू पोंछती रहती है, फिर उठकर भीतर चली जाती है।
थोड़ी देर बाद जीजी का प्रवेश।)
जीजी : अरे तुम? अजित कहाँ है?
जयन्त : वह तो कहीं बाहर गया है।
जीजी : बाहर? कब? अभी मैं नहा रही थी तब तो भीतर आकर आवाज़ दी थी, और अभी चला
भी गया। चाय भी नहीं पी?
जयन्त : पता नहीं, मैं अभी आया तब तो यहाँ नहीं था।
जीजी : अच्छा-। (भीतर चली जाती है।)
(शोभा का प्रवेश)
जयन्त : अच्छा शोभा, अभी तो चला। और देखो, तुम ज़्यादा परेशान न होना। कल-बल
अजित को पकड़कर बैठूंगा और साफ़-साफ़ बात कर लूँगा।
(जयन्त का प्रस्थान। शोभा दरवाज़ा बन्द करती है।
फिर निरुददेश्य-सी अप्पी के बोर्ड के ऊपर लगे मोतियों को इधर से उधर घुमाती है।
भीतर से जीजी का प्रवेश।)
जीजी : (शोभा की ओर गौर से देखती हुई) क्या बात है शोभा? तुम रोती हुई भीतर
क्यों आई थीं अभी? मैंने सोचा, अजित से कुछ कहा-सुनी हो गई, पर वह तो यहाँ था
ही नहीं।
|