नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर बिना दीवारों के घरमन्नू भंडारी
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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....
शोभा : कारण?
अजित : कारण भी मुझे ही बताना होगा? तो सुनो। (स्वर में हल्का-सा आवेश आ जाता
है।) मैं चाहता हूँ मेरा घर-घर हो-कोई ऑफ़िस या होटल नहीं। थका-माँदा मैं ऑफ़िस
से लौटकर आऊँ तो मेरी भी इच्छा होगी कि मेरी पत्नी-(बात बीच में ही छोड़ देता
है) पर यहाँ तो जब भी आओ यही सुनने को मिलता है, अभी वे मीटिंग में गई हैं, या
कि इतने ज़रूरी काम में हैं कि उन्हें बात तक करने की फ़र्सत नहीं है।
शोभा : (गुस्सा बढ़ता जाता है, फिर भी अपने को भरसक संयत करके) और कुछ?
अजित : और? और मैं चाहता हूँ कि मेरी बच्ची की परवरिश अच्छी तरह हो। देख रहा
हूँ धीरे-धीरे उसका तो सारा ही भार जीजी पर चला गया। जीजी उसे अच्छी तरह देखती
हैं, पर क्या सोचती होंगी वे भी मन में? उसके प्रति क्या कोई भी फ़र्ज़ नहीं है
तुम्हारा? एक बच्ची है, पर तुम्हें उसके लिए भी फुर्सत नहीं। बड़े-बड़े काम हैं
तुम्हारे सामने करने को, तुम नहीं करोगी तो देश रसातल को नहीं चला जाएगा?
शोभा : (बहत ही शान्त स्वर में) एक बात पूछ्? आपको घर का इतना ख़याल है, जीजी
का ख़याल है, अपना और अप्पी का ख़याल है, पर कभी मेरा भी ख़याल किया है आपने?
कभी मेरी भावनाओं को भी समझने की कोशिश की है? मेरी अपनी भी कुछ आकांक्षाएँ
हैं, अपने जीवन का कोई स्वप्न है। इस घर की चहारदीवारी के परे भी मेरा अपना कोई
अस्तित्व है, व्यक्तित्व है, और मैं चाहती हूँ कि- (गुस्से में होंठ काट लेती
है।)
अजित : सच बात ऐसी ही तल्ख होती है कि आदमी तिलमिला जाता है।
शोभा : फिर यह सच बात है भी नहीं। मैं खुद जानती हूँ कि जब घर बसाया है, बच्ची
को जन्म दिया है तो मेरा पहला कर्तव्य उनके प्रति ही है। पर अपने इस कर्त्तव्य
को भी भरसक पूरा ही करती हूँ। आजकल दो-दो नौकर हैं-सभी काम बड़े व्यवस्थित ढंग
से चल रहे हैं। अप्पी को मैं खुद दो घंटे रोज़ लेकर बैठती हूँ, उसका पढ़ना,
उसका खाना, उसका नाच सभी तो देखती हूँ। और जहाँ तक आपका प्रश्न है-
अजित : (बीच में ही बात काटकर) मेरा? मेरी बात तो तुम छोड़ ही दो। ऑफ़िस से आया
तो देखा यहाँ तुम्हारा ऑफ़िस खुला हुआ है। भीतर जाकर देखा एक नौकर अप्पी को
लेकर पार्क गया है तो दूसरा सामान खरीदने। जीजी नहा रही हैं। एक प्याला चाय तक
की कोई व्यवस्था नहीं। बैठकर नौकर का इन्तजार करो-मानो यह घर नहीं होटल है।
(हाथ की सिगरेट मसलकर राखदानी में डाल देता है और कोट कन्धे पर डालकर एकदम बाहर
निकलने लगता है।)
शोभा : बाहर कहाँ चले? मैं चाय ला रही हूँ।
अजित : बाहर ही कहीं पी लूँगा! (चला जाता है।)
(शोभा कुछ देर तक बड़े व्यथित भाव से देखती रहती है, फिर हथेली में सिर टिकाकर
आँखें मूंद लेती है।
(जयन्त का प्रवेश।)
जयन्त : शोभा!
(शोभा चौंककर ऊपर देखती है। उसकी आँखों में आँसू हैं।)
जयन्त : यह क्या, तुम रो रही हो?
शोभा : नहीं, यों ही ज़रा!
जयन्त : बात क्या है? अजित क्या ऑफ़िस से आ गया?
शोभा : आए थे, फिर चले गए!
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