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नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

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स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....


द्वितीय-अंक


पहला दृश्य


(कुछ दिनों बाद अजित का वही ड्राइंग-रूम। समय सन्ध्या के छह बजे। शोभा कॉलेज के क्लर्क के साथ बैठी हुई बातें कर रही है। वह काग़ज़ लिये हुए कुछ लिख रहा है। शोभा के सामने एक डायरी खुली हुई रखी है।

शोभा : तो आपने सब लिख लिया, मिस्टर चौधरी?

क्लर्क : आप कहें तो एक बार फिर से पढ़कर सुना दूँ?

शोभा : नहीं-नहीं, उसकी क्या ज़रूरत है? ऑर्डर आप इंडिया वुड क्राफ़्ट वाले को ही दीजिए। उससे कहिए किसी भी दिन सबेरे दस और ग्यारह के बीच आकर मुझसे डिज़ाइन पास करवा ले।

(अजित का प्रवेश। दोनों को देखता है, जरा-से तेवर चढ़ जाते हैं। बिना कुछ बोले भीतर जाने लगता है।)

क्लर्क : छुट्टियों में पंखों पर भी रंग करवाना होगा। आठ पंखे नए खरीदने होंगे और एक पानी का कलर और-

शोभा : इस मीटिंग में इन चीज़ों की मंजूरी लेनी ही है। और भी कुछ हो आप बता दीजिए। मीटिंग के पहले मुझे पूरी सूची एक साथ तैयार करके दीजिए।

क्लर्क : (उठते हुए) अच्छा, तो इस समय मैं तो चलूँ?

(नमस्कार करके जाता है। शोभा मेज़ पर फैले काग़ज़ आदि समेटती है। अजित का भीतर से प्रवेश।)

अजित : शोभा, कॉलेज के लोगों को तुम कॉलेज में ही बुलाया करो! घर में बैठने को यही तो एक ठीक-ठाक कमरा है। सोने का कमरा तो तुम जानती हो, इतना गरम हो जाता है कि बैठना मुश्किल होता है। इस कमरे में आजकल जब देखो तुम अपना ऑफ़िस खोले बैठी रहती हो, आख़िर-

शोभा : मैं खुद नहीं चाहती कि कॉलेज के लोगों को यहाँ बुलाऊँ। पर साल खत्म हो रहा है, काम इतना रहता है और इतने आने-जाने वाले रहते हैं कि शान्ति से बात नहीं हो सकती। इसलिए ज़रा-सी देर के लिए घर बुला लिया था।

अजित : अभी साल खत्म हो रहा है, फिर नतीजा निकलेगा तो लोग घर चक्कर लगाएँगे, फिर दाखिले के लिए, फिर फ़ीस माफ़ कराने के लिए-फिर कुछ और निकल आएगा। मुझे तो आजकल लगता है जैसे मैं घर में नहीं, तुम्हारे ऑफ़िस में रहने लगा हूँ। (अजित बीच की मेज़ से अपनी डायरी उठाकर खोलता है) कितनी बार मैंने अप्पी से कहा है कि मेरी डायरी में ये सब कीड़े-मकोड़े न बनाया करे। कम-से-कम तुम उसे तो कुछ सिखा ही सकती हो। वह बेचारी तो आजकल भगवान भरोसे ही पल रही है। दुनिया भर के बच्चों को पढ़ाया और-

शोभा : (बीच में ही बात काटकर) ताने मारने में आपको कोई विशेष आनन्द आता हो तो ठीक है, लेकिन इतना जान लीजिए कि मेरी सहनशक्ति की भी एक सीमा है।

अजित : मैं और ताने...मेरी इतनी जुर्रत कहाँ कि महिला विद्यालय की प्रिंसिपल साहब को ताने मारूँ? मैंने तो सीधी-सी बात कही थी।

शोभा : जैसी सीधी बातें आप पिछले कुछ महीनों से कर रहे हैं, क्या मैं समझती नहीं? मैं जानती हूँ कि मेरा प्रिंसिपल का काम लेना आपको भाया नहीं। पर एक बार तो आपने मुझे समझाने की कोशिश की होती कि क्यों आप इस काम के ख़िलाफ़ हैं।

अजित : तुम्हें भी अपना कोई ज़रूरी काम करना होगा, मुझे भी कुछ करना है। बेहतर होगा हम इन सब फ़ालतू बातों में अपना समय ज़ाया न करें।

शोभा : यदि सचमुच ही ये सारी बातें फ़ालतू होतीं तो न तो आप यों अपना सन्तुलन खो बैठते, न मैं ही इन्हें इतना तूल देती। आप मुझे बताते क्यों नहीं कि मैंने एक अच्छी नौकरी लेकर आखिर ऐसा क्या गुनाह कर दिया है? मान लीजिए, आज आपको एकाएक ऐसी जगह मिल जाए, जिस तक पहुँचने के लिए वैसे आपको शायद दस साल लगें, तो आप नहीं ले लेंगे? लेकर प्रसन्न नहीं होंगे? अपने को उसके लायक सिद्ध करने के लिए जी-जान नहीं जुटा देंगे?

अजित : (सीधी नज़रों से शोभा को देखता है, फिर बड़े ही संयत और आवेशहीन स्वर में) ज़रूर जुटा दूँगा! पर शोभा, मेरी बात थोड़ी-सी भिन्न है। एक तो मैं अपने काम से यों ही बेहद असन्तुष्ट हूँ, इसलिए मुझे कोई मौक़ा मिलेगा तो ज़रूर ले लूँगा। फिर भी यदि उस काम के लिए मुझे अपने घर, अपनी बीवी और बच्ची की कीमत चुकानी पड़े तो शायद दस बार सोचूँगा। क्योंकि मैं किसी अच्छी नौकरी की कामना केवल इसीलिए करता हूँ कि तुम लोगों को और अधिक आराम से रख सकूँ।

शोभा : तो तुम क्या समझते हो कि मैं तुम लोगों की कीमत पर यह काम कर रही हूँ?

अजित : मुझे तो ऐसा ही लगता है।

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