गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
सभी का कल्याण कैसे हो
एकान्तमें भगवान् की दयाके भरो सेपर ध्यानसे यह निश्चय करना चाहिये कि भगवान् दर्शन देते हैं और अवश्य देंगे।
भगवान् आने के पूर्व ही ज्ञान, आनन्द, शान्ति, प्रसनन्ता, प्रकाश, शीतलता, शरीर में चेतनता आदि की बाढ़ आ गयी इनकी उत्तरोत्तर वृद्धि देखता रहे। सूर्यके आनेके पूर्व ही प्रकाश फैल जाता है, इसी प्रकार भगवान् की दयासे भगवान् के आनेके पूर्व ये लक्षण होने लग गये हैं। जैसे वैद्य बुखारके पूर्व लक्षण बतलाता है जम्हाई आना, शरीर टूटना आदि। ऐसे ही भगवान् की प्रतीक्षा करनेसे शान्ति, ज्ञान, आनन्द आदि लक्षण होने लग जाते हैं। विक्षेप, आलस्य नष्ट हो जाते हैं। प्रसन्नता, आनन्द, विक्षेपका ज्ञान और प्रकाश बढ़ता है, आलस्यका नाश हो जाता है। ये बातें कल हुई थीं। विशेष लक्ष्य डालनेके लिये कहा है इसमें हेतु समझे, भगवान् की दया।
समयको सीमित और अमोलक समझना चाहिये। यदि आज ही मृत्यु हो जायेगी तो क्या दशा होगी। रात्रिको आँख खुले तब भी यही सोचना चाहिये कि यदि इस समय मृत्यु हो जाती तो क्या दशा होगी। बस, अपने तो अब भगवान् को छोड़ो ही मत।
अपारसंसारसमद्रमध्ये समजती मे शरण किमस्ति।
गुरो कृपालो कृपया वदैतद्विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका॥
हे दयामय गुरुदेव! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसाररूपी समुद्रमें मुझ डूबते हुएका आश्रय क्या है? विश्वपति परमात्माके चरणकमलरूपी जहाज।
चाहे नामको पकड़ लो चाहे नामीको, दोनोंको पकड़ ले तब तो फिर कहना ही क्या है नामका जप जीभसे कभी नहीं छोड़ना चाहिये। जबतक शरीरमें दम रहे, मनसे भगवान् के स्वरूपको पकड़े रहना चाहिये। जीभसे या श्वाससे उनके नामको, अन्त:करणसे उनके रूपको पकड़े रहना चाहिये। मैं तो रेलके ऊपरके पाटियेपर सोता हूँ तो एक तरफ पैरसे दूसरी तरफ हाथोंसे दोनों तरफकी जंजीरको पकड़ लेता हूँ। निर्भय होकर सी जाता हूँ गिरनेका डर नहीं रहता। सबसे खराब मृत्यु तो वह है जो आत्मघात करके हो जैसे डूबकर मरना आदि। सबसे बढ़िया मृत्यु भगवान् के गुण, प्रभाव, प्रेमकी बातें सुनते, ध्यान करते या भजन करते हुए मरना है। यह मालूम हो जाय कि शरीर रहनेवाला नहीं है तो उत्तम तीर्थस्थानपर जानेकी कोशिश करनी चाहिये। चार बातें हैं-
(१) भजन करते मरना, ध्यान करते मरना, सत्संग करते मरना, उत्तम देशमें मरना, इनमेंसे एक भी मिल जाय तो मुक्तिदायक है। हमें चारोंकी ही चेष्टा करनी चाहिये। यह निश्चय रखना चाहिये कि इन चारोंमेंसे एक भी निश्चय कल्याण कर देता है।
(२) मरते समय तुलसीदलका सेवन, गङ्गाजलका सेवन, गीताकी पुस्तक, तुलसीकी माला यह बहुत उत्तम है।
(३) धूप खेना, कुशा बिछाना, गोमूत्र, गोबर, गोपीचन्दन, रेणुका, पुष्प ये सभी सहायक हैं, सात्त्विक वस्तुएँ हैं। यह सब तीन नम्बरकी हैं। एक नम्बरकी बातमें विघ्र पड़नेकी संभावना हो तो उस परिस्थितिमें तीन नम्बरको छोड़ सकते हैं। हमलोगोंके विश्वासमें युक्ति, तर्क यही बाधक हैं। जो दोष हों उन्हें हटाना है। सब दोषोंको हटानेका उपाय भजन और सत्संग है। भगवान् के नाममें जितने पापोंको नाश करनेकी शक्ति है उतने पाप संसारमें नहीं हैं। आगमें इतनी शक्ति है कि जगत्भरका ईंधन जलकर भी आग कायम रहती है। जितने प्रायश्चित हैं उनमें नामके समान दूसरा है ही नहीं। लोगोंके विश्वास और संतोषके लिये ही नाना प्रकारके प्रायश्चित्तोंका विधान है। नामके आभाससे ही पापोंका नाश हो जाता है। पापोंके नाशके उद्देश्यसे नाम-जप करना भी भूल ही है, नाम-जप तो केवल प्रभुमें प्रेम होनेके लिये ही करना चाहिये। प्रकाश होते ही अन्धकारका नाश हो जायगा। अन्धकारके नाशके लिये अलग प्रार्थना करनेकी आवश्यकता ही नहीं है। भजन तो भजनके लिये ही करना चाहिये। भजन ही साधन, भजन ही साध्य- यह बहुत ऊँचे दर्जेकी बात है। उद्देश्य यदि चाहिये तो यह उद्देश्य सबसे उत्तम है कि भगवान् में हमारा प्रेम हो। ऐसी कामना हमारे हृदयमें समायी रहे, कभी न जाय, सदा ही रहे। यह कामना मुक्तिकी कामनासे भी बढ़कर है, विशुद्ध कामना है। भगवान् श्रीकृष्णने पूतनाको मुक्ति दी और गोपियोंको प्रेमदान दिया। कोई यह कामना नहीं करता है कि पूतनाकी चरणधूलि हमें मिल जाय, परन्तु गोपियोंकी चरणधूलि तो उद्धवसरीखे भक्त भी चाहते हैं। ब्रह्माजी भी भक्तोंकी चरणधूलिकी इच्छा करते हैं। भक्तोंकी कृपासे तो न मालूम कितनोंकी मुक्ति हो जाय। भगवान् के प्रेमी तो मुक्तिका सदावर्त खोल सकते हैं। शिवजीने काशीजीमें खोल रखा है, ऐसा सदावर्त भगवान् के भक्त खोल सकते हैं। मुक्तिकी इच्छा चाहनेवालोंको तो मुक्ति दे देते हैं। जो मुक्तिकी इच्छा त्यागकर प्रेम चाहते हैं वे ही कभी कारक पुरुष बनाकर भेजे जाते हैं।
पेंशन पानेवालेके चार भेद हैं-
(१) पेंशनका अधिकार होनेपर भी पेंशन नहीं लेता, सरकारका काम करता है।
(२) पेंशन लेता है काम करता है।
(३) पेंशन नहीं लेता काम भी नहीं करता।
(४) पेंशन लेता है काम नहीं करता।
इन चारोंमें श्रेष्ठ १ नम्बर है और वही भगवान् का सबसे ऊँचे दर्जेका भक्त है। यहाँ पेंशन मुक्ति है। सरकारका काम लोकोपकार है। मुक्तिका एकदम तिरस्कार करनेवाले केवल निष्कामी एक नम्बर हैं। मुक्ति चाहें तो उनका दर्जा घट जाय। उनके तो चाहनेसे ही लाखोंकी मुक्ति हो जाय। सदावर्त करनेवाला लेने लग जाय तो निन्दाकी बात है। हाथ फैलाना तो छोटापन है। मुक्ति तो उसकी दासी है, उसका अभाव थोड़े ही है। वह तो बेचारा मुक्तिसे डरता है, कहता है कि सब भूखे बैठे हैं फिर मैं कैसे भोजन करूं। दयालु है, सबका उद्धार चाहता है। मुक्ति भी वहाँ तो स्वार्थ है। दयावान् आदमी कैसे उसे स्वीकार करे। वह जीवन्मुक्त नहीं, जीवन्मुक्तिको देनेवाला है, जीवन्मुक्त करनेवाला है। उसकी भूख तो भाग जाती है। बस बाँटनेमें ही प्रसन्नता है। वह तो भगवान् के साथ भोजनकी बात करता है। यदि पहले भोजन करनेकी बात उससे करते हैं तो वह कहता है कि प्रभो! मेरा आपमें प्रेम कहाँ है, इसलिये आप बिना आपके भोजन करनेकी बात करते हैं। जल्दी है तो काम खतम कर डालिये। सबको मुक्त कर दीजिये।
एक विद्वान् और एक वेश्या काशीमें रहते थे, वेश्या कपड़ा फटकार रही थी। विद्वान् महात्माने कहा अलग हटो। वेश्या बोली-यह काशी है, यहाँ सबकी एक गति है, जहाँ तुम जाओगे वहीं मैं जाऊँगी। पंडितजी दु:खी होकर जाने लगे, कहा जिस काशीमें ऐसा अन्धेर है एक विद्वान् और वेश्याकी एक ही गति है उसमें मैं नहीं रहूँगा। काशीकी अधिष्ठात्री देवी प्रकट हुई और सब बातें समझा दीं। पापीकौ अधिक-से-अधिक ८८००० वर्षतक भैरवी यातना भोगनी पड़ती है, ज्ञानी तुरन्त मुक्त हो जाता है। आप इतनी पवित्र भूमि छोड़कर कहाँ जा रहे हैं, पंडितजी समझ गये। केदारखण्डमें भैरव यातना भी नहीं भोगनी पड़ती। शिवजी भोलेनाथ हैं, भक्त केदारजीकी वरदान दे दिया था। अब पूर्व प्रसङ्गपर आ जाता हूँ। सबकी मुक्ति आजतक नहीं हुई, परन्तु हो तो सकती ही है। अपने तो यही चेष्टा करनी चाहिये। निष्काम प्रेम-भाव अपने कल्याणकी, उद्धारकी, परमात्माकी प्रासिकी बात ही नहीं तन, मन, धन, जीवन अर्पण कर देना चाहिये कि सबका कल्याण हो जाय। भगवान् की दयासे कोई भी काम असंभव नहीं है। ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि सबका कल्याण हो सकता है। यह आग्रह पहुँचे हुए पुरुषोंसे भी ऊँचे दर्जेकी बात है। बड़ी भारी दयाकी बात है। ऐसे भतको ईश्वरसे भी बढ़कर बताया जाय तो कोई बड़ी बात नहीं है। यह उद्देश्य बहुत सराहनीय है, इससे बढ़कर और उद्देश्य हो ही नहीं सकता कि सबका कल्याण हो। जो मुक्तितकके स्वार्थका त्याग कर सकता है वही ऐसा उद्देश्य बना सकता है। स्वार्थका त्याग करना यह कहना तो बड़ा सहज है, परन्तु होना बड़ा कठिन है। एक महत्त्वकी बातजो कुछ है भगवान् के अर्पण है यह अच्छी बात है, पर इसमें भी यह स्वार्थ है कि कहीं मेरी मूर्खतासे खर्च न हो जाय, इसीलिये भगवान् के यहाँ जमा कर दिया। यह स्वार्थकी ही बात है। इससे ऊँची बात यह है कि हे प्रभु! वास्तव में तो मुझसे कुछ नहीं बनता। जो कुछ बनता है वह आपकी कृपासे ही बनता है। आप ही निमित्त बनाकर करा लेते हैं, अगर निमित्त बननेमात्रके बदलेमें कुछ मिलता हो तो उससे सबका कल्याण हो जाय, सबके काममें आ जाय।
युधिष्ठिरने कुत्तेके लिये स्वर्गको लात मार दी। उनसे कहा गया कि कुत्तेको पालनेवाला नरकमें जाता है। उन्होंने कहा कि कुत्ता मेरे साथ रहा है इसलिये मैं स्वर्गमें कुत्तेको छोड़कर नहीं जाना चाहता, बस कुत्तेमें ही धर्मराज प्रकट हो गये। यह स्वार्थत्यागका दृष्टान्त है। प्रशंसा करनेलायक तो वही पुरुष है जिसमें अधिक-से-अधिक स्वार्थका त्याग है। भाव यही रखना चाहिये कि सबका कल्याण हो, सबका उद्धार हो। साधारण लोग मोटे स्वार्थसे काम करते हैं। मुक्तिकी इच्छावाले मुक्तिके स्वार्थको रखकर काम करते हैं। अपने यह लक्ष्य रखना चाहिये कि सबका कल्याण जिस किसी प्रकार हो, जल्दी हो जाय। वह प्रभु बड़े दयालु हैं। उनकी कृपासे ही हो सकता है। क्यों नहीं करते हैं क्या कारण है पता नहीं। वह दयालु हैं, सर्वसामथ्र्यवान् हैं। कोई महापुरुष भगवान् का दर्शन करा सकते हैं, किन्तु नहीं कराते, मुक्ति दे सकते हैं, किन्तु नहीं देते। क्यों नहीं करते इसमें भी उनकी दया ही है। सामथ्र्यकी कमी नहीं है। परमात्माकी इच्छा यह बात अपनी बुद्धिके बाहरकी है। हम नहीं समझ सकते। पर हमें यही उद्देश्य रखना चाहिये कि प्रभु सबका कल्याण हो जाय, सब आपके भक्त बन जायें। अपनी सामथ्र्य कहाँ है, प्रभुकी दयासे हो सकता है। अपना वोट तो हर समय यही देता रहे कि सबका उद्धार हो जाय। प्रसन्नता तो उसीमें हो जो सबकी इच्छासे हो, सभापतिकी आज्ञासे हो, परन्तु अपना वोट, अपनी राय तो यही रहे कि बस सबका कल्याण हो, दर्ज तो होगा कि ऐसा भी वोट आया है। एक आदमी आकर माँगता है कि तुमने ५० हजार रुपये निकाले हैं मुझे दे दो। वह कह सकता है कि भाई तुम्हारे अकेलेके लिये थोड़े ही है, सबके लिये है। अपने हिस्सेके अनुसार ले लो। अगर ऐसी बात कहनेमें संकोच हो, अभिमानकी बात कहनी पड़े और यह कह दिया जाय कि नहीं दे सकता, इसके बदलेमें अगर उसे खोटी-खरी सुननी पड़े तो उसका क्या हर्ज है।
सबके लिये निकाली हुई चीजको तुम अकेले सारी-की-सारी कैसे ले सकते हो। बड़े चन्देमें, उस प्रभुके खजानेमें अपनी पूँजीको जमा रहा है। उसमेंसे सबको मिल ही सकता है। उस स्थानपर परमात्मा उसको ही गुमास्ता बनाकर अपना काम करवा सकते हैं। याज्ञवल्क्यने जनकको गुमास्ता बनाकर राज्य सौंप दिया, इसी प्रकार नि:स्वार्थ भावसे, निरभिमान भावसे, भगवत् प्रेरणानुसार कार्य किया जाय। अपना अभिमान गया भगवान् का सेवक बनकर रहे। भगवान् की चीज दे। अपनी शक्ति वहाँ जमा दे दी, अब बड़ी शक्ति लेकर सबके उद्धारके लिये कार्य कर रहा है। अपना सर्वस्व दिया और मेम्बर बना। परमात्माके सर्वस्व अर्पण करके उनकी शक्ति से वितरण करे। सबके कल्याणके लिये जो अपना सर्वस्व त्याग देता है, उस त्यागसे भी जो फल होता है, उसका भी सबके कल्याणके लिये त्याग करे, फिर उसका जो फल मिले वह भी सबके लिये, इस प्रकार खूब अपने मनमें सबके कल्याणका भाव रखे। दीर्घतपा ब्राह्मणने गायत्रीका जपरूपी तप किया। राजा इक्ष्वाकु उनके पास आये और कुछ सेवा करनी चाही और कहा कि आपको जो इच्छा हो ले लें। दीर्घतपाने कहा कि तुमको जो इच्छा हो मौग सकते हो। राजाने कहा—आपने जो तपस्या की है वह मुझे दे दीजिये। दीर्घतपाने कहा ले लो। राजाको चेत हुआ बोले मैं क्षत्रिय हूँ, आप ब्राह्मण हैं, मेरा धर्म तो देना ही है। दीर्घतपाने कहा-सोचकर क्यों नहीं माँगा, अब तो लेना होगा। वहाँ काल, मृत्यु एवं यमराज थे। उनसे न्याय कराया गया, उन्होंने कहा कि राजाको सोचकर कहना चाहिये था, अब तो लेना ही पड़ेगा। राजाने कहा अच्छी बात है। उसके बाद धर्मराजने दीर्घतपा ऋषिसे कहा मृत्युका समय आ गया चलिये। ऋषिने कहा अभी मुझे घोर तपस्या करनी है। धर्मराज चुप रहे। राजाने पूछा इनके पास अब कौन-सा पुण्य बचा है। सब तो मुझे दे चुके। कौन-सी चीज इनके पास है जिससे आप इन्हें नहीं मार सकते। धर्मराज बोले सारे तपका दान आपको दे दिया। इस त्यागका भी तो फल होना चाहिये, वह इतना महान् है।
दानके फलके विषयमें यह कथा कही गयी। सब भगवान् के भत बन जायें, यह भाव खूब बढ़ाये। लाला बलदेवसहायजी देहरादूनवालोंका उत्तम भाव था, यही भाव था कि सब भगवान् के भक्त बन जायें। वे बड़े अच्छे पुरुष थे। उनका यह भाव स्वाभाविक था। जिस कामसे भगवान् प्रसन्न हों वही करे।
जिस बातको हम हृदयसे अच्छी समझते हैं उसके अनुसार अगर हमलोग साधनमें तत्पर हो जायें तो बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है। एकान्तमें बैठकर शुद्ध हृदयसे परमात्मापर भरोसा करके भगवान् की प्रेरणा हो वही सिद्धान्त हम बना लें। प्राण दे दें पर उस सिद्धान्तसे न डिगें। निश्चय कर लिया कि ब्रह्मचर्यका पालन करेंगे और फिर परस्त्रीकी तरफ हमारा मन जाता है तो हम अपनी आत्माका पतन करते हैं। जो बात हम सबसे बढ़कर समझते हैं उसको सिद्धान्त बनाकर तत्परताके साथ उसके पालनमें लग जायें, इससे बहुत जल्दी हमारा कल्याण हो सकता है।
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- सत्संग की अमूल्य बातें