गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
भगवान् का ध्यान
बातें सुनकर भी मानी नहीं जातीं इसका कारण है अन्त:करणकी मलिनता और पूर्वके संस्कार। इनको दूर करनेका उपाय है भजन और सत्संग।
तीन अर्थों की सिद्धि हो वह तीर्थ है। चार अर्थ हैं- धर्म, काम, मोक्ष, अर्थ। तीर्थमें तीन सिद्ध होते हैं। राजसी लोग कामनाकी सिद्धिके लिये तीर्थोंमें जाते हैं। सात्विक लोग धर्म और मोक्षके लिये जाते हैं। महात्मा लोग तीर्थोंको तीर्थ बनानेके लिये, उनका तीर्थत्व कायम रखनेके लिये जाते हैं।
तीर्थोंमें कोई भी काम किया जाय उसका फल बड़ा होता है। पाप करेंगे तो पाप बढ़ जायगा। तीर्थ योगवाली वस्तु है। वहाँ पाप करें तो पाप महान् पुण्य करे तो पुण्य महान् होता है, साधन करे तो साधन महान् होता है। तीर्थोंमें जाकर चोरी, पाप, व्यभिचार करनेसे महान् दण्ड होता है। तीर्थोंमें तीन ही काम करने चाहिये। भजन, ध्यानरूपी साधन, साधु-महात्माओंकी सेवा (सत्संग), गंगा हो तो गंगा स्नान करना चाहिये, गुफा हो तो गुफामें वास करे। नियमपूर्वक रहे, व्रतका पालन करे। साधन, संयम, सेवन तीन काम करे। तीर्थमें कामना सिद्ध होती है। स्वर्ग चाहता है तो स्वर्ग मिलता है। निष्कामभावसे करे तो अन्त:करणकी शुद्धि होती है।
व्रत-यम-नियमादि महाव्रतका पालन करना चाहिये, सदाके लिये यम-नियमादि पालन किये जायें तो महाव्रत है।
उपवास
(१) उत्तम अन्न-जल कुछ भी नहीं लेना
(२) केवल जल लेना
(३) दिनमें एक बार वृक्षके पके फल तथा दूध
(४) शाकाहार
दूध, फल एक समय ही लेना।
अहिंसा-किसी भी प्राणीको किसी भी निमित्तसे कभी मन, वाणी, शरीरसे किंचित्मात्र भी कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा है।
सत्य-यथार्थ भाषण, जैसा सुना और देखा है, जैसा अपने अनुभव है, उतनाका उतना कहना, निष्कपट भावसे हिंसा वर्जित यथार्थ भाषण सत्य है, कम कहना चुराना है, अधिक कहना व्यर्थ भाषण है, कपटरहित हिंसारहित और प्रिय शब्दोंमें कहना चाहिये।
अस्तेय-किसीके धनको किसी प्रकार कभी लेनेकी इच्छा न करना।
ब्रह्मचर्य-जिससे कामोद्दीपन हो इस प्रकारकी कोई चेष्टा कभी किसी प्रकार न करना। नेत्रोंसे स्त्री आदिका दर्शन, श्रवण, स्पर्श, एकान्तवास आदि किसी प्रकार भी नहीं करने चाहिये।
अपरिग्रह-ऐश, आराम, भोग इन पदार्थोंको भोगनेकी दृष्टिसे अपने लिये संग्रह करना परिग्रह है इसका त्याग अपरिग्रह है। इन सबको विस्तारसे बतलाया जाय तो एक-एकके ८१ प्रकारके भेद हैं। इन सबसे बचा जाय तो महाव्रत है। जैसे अहिंसाके तीन भेद हैं-कृत, कारित और अनुमोदित। इनके भी तीन भेद हैं-मृदुमात्रा, मध्यमात्रा और अधिमात्रा। फिर इनके भी तीन भेद हुए। क्रोधसे, लोभसे, मोहसे अब इसके भी तीन भेद मनसे, वाणीसे और शरीरसे। इस प्रकार ८१ भेद हुए। ऐसे ही असत्य आदिमें भी होते हैं। योगदर्शनके दूसरे पादमें सविस्तार वर्णन है इनका फल भी बतलाया है। अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः। सत्य प्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्। अच्छे पुरुष देश, काल, जाति किसीके निमित्त हिंसा नहीं करते, मिथ्या नहीं बोलते। ऊपरसे सत्य बोले मनमें कपट हो तो मिथ्या ही है।
ध्यान करनेके लिये एकान्त स्थान, पवित्रभूमि न कोई विशेष हवा, विशेष धूप, न बाहरका हल्ला, निर्विघ्न पवित्र देशमें बुहार-झाड़कर चौकी, चट्टान, शिला आदि अच्छे बैठनेके स्थानपर न बहुत ऊँचा, न बहुत नीचा, ऊन, कुशा, मृगचर्म आदिके आसनपर स्वस्ति, पद्म या सिद्धासनसे बैठ जाय। नेत्रोंको बन्द कर ले। निद्रा आये तो खोल ले। वैराग्य करना चाहिये। बाहरके पदार्थोंकी ओर ख्याल ही नहीं करना चाहिये। विवेक-वैराग्यके द्वारा सारे पदार्थोंको त्याग देना चाहिये।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥
(गीता ६।१४)
यह श्लोक भारी काम देनेवाला है इसमें ७ विशेषता है। यहाँ सगुण भगवान् का प्रकरण है।
प्रशान्तात्मा-विक्षेपरहित
विगतभीः-सर्वथा भयरहित
ब्रह्मचारिव्रतेस्थित:-ब्रह्म परमात्मामें विचरण, परमात्मामें क्रीड़ा करना, जिन चीजोंसे ब्रह्मचर्यकी हानि हो, ऐसी चीजोंका मनसे भी चिन्तन न करना।
मन:संयम्य-मनको अपने वशमें करके
युक्त:-समाहित चितको युक्त कहते हैं।
मत्पर: आसीत-भगवान् के परे और कुछ है ही नहीं, ऐसे ध्यानमें मस्त हो जाय।
इष्टदेवका चित्र सामने रखे, चरणोंसे मस्तकतक सारा शरीर देखे। कभी नेत्र खोले कभी मीचे ऐसा अभ्यास करे, विश्वास करे कि प्रभुके दर्शन हो जायेंगे। मुझको मिलेंगे इसमें कोई शंका नहीं है। आलस्य, विक्षेप तो प्रभुकी कृपासे आ ही नहीं सकते। नेत्रोंको बन्द करके मानसिक मूर्तिका ध्यान हृदयमें या बाहरमें करे। दोनोंका एक ही फल है। प्रभुका आह्वान करना चाहिये हे नाथ, हे प्रभु हम सबके लिये आप ही आश्रय हैं। विरह में व्याकुल होकर गोपियोंकी तरह ध्यान करे। प्रेमभक्तिप्रकाशमें दी गयी विधिके अनुसार मानसिक पूजन, आरती, स्तुति करे। आप ही सर्वस्व हैं, उत्पत्ति, स्थिति, पालन करनेवाले आप ही हैं। हे नाथ ! ऐसे ही आप सदा दीखते रहें। आपसे कभी हमारी वृत्ति हटे ही नहीं, आपमें ही अनन्य प्रेम हो। ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्तालाप नामक पुस्तकको दो-चार बार पढ़ ले, उसके ही ढंगसे वार्तालाप करे। इस प्रकार वृत्तियाँ इधर-उधर नहीं जातीं। ध्यान न हो जब भगवान् नहीं आते तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है। आपका वियोग मैं सह रहा हूँ। हे नाथ! मैं बड़ा पापी हूँ। यह खूब आशा रखनी चाहिये, निश्चय रखना चाहिये, प्रतीक्षा करनी चाहिये कि भगवान् अब आये, अब आये। मनमें धारणा करनी चाहिये कि भगवान् के आनेके पहले ही नेत्र बन्द करनेपर भी महान् शान्ति, महान् प्रकाश हो जाता है। प्रकाश दिव्य है, शान्त है, बहुत रमणीय है। सब दिशाएँ एकदम निर्मल हो गयी हैं। बड़ी भारी सुगन्धि आयी है, प्रभुकी गन्ध लेकर हवा चली है। आनन्दका स्रोत-सा आ जाता है, मुग्ध हो जाते हैं, उमड़ पड़ा है, यह परिस्थिति भगवानके आनेके पूर्व ही हो जाती है। रोम-रोममें ज्ञानकी दीति प्रकाशित हो रही है मानो ज्ञानके समुद्रमें डाल दिया गया है। भगवान् के प्रकट होनेके पूर्व ही उत्तरोत्तर इनकी वृद्धि देखता है। देखो कैसी शान्ति, कितना आनन्द, कितना ज्ञानका प्रकाश, भगवान् एक क्षणमें प्रकट हो गये। प्रकाशमय, ज्ञानमय, आनन्दमय मूर्ति देखकर मुग्ध हो जायें। देखो कैसा उत्तम ध्यान है। कौन ऐसा मूढ़ है जो यह ध्यान छोड़े। यह ध्यान छूट ही कैसे सकता है। भगवान्से वार्तालाप होता ही रहता है। प्रभुके स्वरूपमें ऐसी आकर्षण शक्ति है कि वृत्ति उसे छोड़ ही नहीं सकती। कभी-कभी उसको स्वप्नमें भगवान् मिलते हैं। कभी स्वप्न भूल जाता है पर बड़ी शान्ति और प्रसन्नता होती है। प्रभो जैसे स्वप्नमें मिले वैसे प्रत्यक्ष कब मिलेंगे। भगवान् का ध्यान तो फिर आसान हो जाता है। देखे हुएका ध्यान सहज है, तुरन्त ही ध्यान हो जाता है। ध्यान करना तो अपने हाथकी बात है। दर्शन तो अगलेकी मर्जीके ऊपर है। सूरदासजी कहते हैं-
बाहँ छुड़ाये जात हो निबल जानिके मोहि।
हृदय ते जब जाहुगे पुरुष बदौंगो तोहि।।
जब हृदय निर्मल हो जाता है, ध्यानमें साक्षात् प्रभु आते हैं। सुतीक्ष्णको जगा लिया वैसे ही प्रभु जगा लेंगे। आज तो भगवान् आ ही गये। प्रत्यक्ष शान्ति और आनन्द है, भगवान् की छटा देखकर मुग्ध हो जाते हैं। प्रभु चले गये। हे नाथ! अब मेरा जीवन आपके बिना व्यर्थ है। वह विलाप करता हुआ प्रभुके प्रेममें मुग्ध हो जाता है। सात्त्विक भावोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। विक्षेप और आलस्य पास नहीं फटकते। संसारका चित्र बुलानेपर भी नहीं आता। वैराग्य और उपरामता बढ़ती रहती है। स्वभावसिद्ध अवस्था हो जाती है। चलते-फिरते, उठते-फिरते भगवान् साथ हैं। साथ ही खाते, साथ ही चलते, साथ ही बैठते, सब समय साथ हैं। भगवान् के नेत्रोंमें प्रेमका प्रवाह बह रहा है। शान्ति, समता, दया, दिव्य प्रकाश, ज्ञान, आनन्द, मूर्तिमान् प्रेम, मूर्तिमान् दया नेत्रोंसे प्रत्यक्ष दीखते हैं। जिस वस्तुकी स्मृति होती है, उसीमें प्रभुके नेत्र दीखते हैं। ज्ञानका प्रकाश दो झरोखोंसे आ रहा है और आगे अपने शरीरमें ये सब दीखते हैं। प्रभुके नेत्रोंका असर उसपर होता है। उसको प्रतीति होती है कि परमाणु मेरेमें प्रवेश हो रहे हैं, दया, शान्ति आदि मेरेमें प्रत्यक्ष बढ़ रहे हैं। भगवान् के नामका जप उससे कभी छूटता ही नहीं, कोशिश नहीं करनी पड़ती, स्वाभाविक ही होता रहता है। ध्यान तो छूटता ही नहीं। गुण, प्रभाव, चरित्र याद आते रहते हैं। भगवान्से विनोद करता रहता है। वार्तालाप करता है। मानसिक शरीरसे यह सब होते हैं। प्रभुका भी दिव्य शरीर है अणु-अणुमें भगवान् दीखते हैं, जहाँ नेत्र जाते हैं, मन जाता है, प्रभुका स्वरूप दीखता है। और भी आगे बढ़नेपर प्रेमलक्षणा भक्ति हो जाती है।
न लाज तीन लोककी न वेदको कह्यो करे।
न शंक भूत प्रेतकी न देव यक्षसे डरे॥
सुने न कान और की द्रसै न और इच्छना।
कहे न मुख और बात भक्ति प्रेम लक्षणा।।
लज्जा, मान, बड़ाई सब विदा हो जाते हैं। नीतिका ज्ञान विस्मृत हो गया है। आनन्दका कोई ठिकाना नहीं है। करुणाभावसे विलाप करता है। सर्वत्र प्रभुका स्वरूप दीखता है। कानोंसे प्रभुकी बात सुनता है, मनन करता है। सारा संसार प्रभुका स्वरूप, जो कुछ वह बोलता है प्रभुकी वाणी, जो कुछ वह सुनता है प्रभुका कीर्तन। इसके बाद प्रभुकी प्राप्ति हो जाती है। इसके बाद किसीकी प्रौढ़की-सी, किसीकी ज्ञानी-जैसी, किसीकी बालक-जैसी अवस्था हो जाती है। किसीकिसीकी और भिन्न होती है।
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- सत्संग की अमूल्य बातें