गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
सभी साधनों की फल में एकता
अपना जितना सुन्दर रूप देखना चाहो वैसा ही अपना रूप बना लो, अपना रूप ही दर्पणमें दीखता है। भगवान् का रूप सजा हुआ है, परन्तु भक्तकी अत्यन्त वैराग्यके साथ रहनेको कहते हैं। बात यह है कि स्त्री पतिके अनुकूल ही रूप सजाती है। पति भी स्त्रीकी प्रसन्नताके अनुकूल ही अपनेको सजाता है। भगवान् को आकर्षित करनेके लिये हमें अपनेआपको सदुण सदाचारसे सम्पन्न करना चाहिये। भगवान् की रुचिके अनुसार बनना चाहिये। भगवान्जो इतना सुन्दर और माधुर्यमय रूप धारण करते हैं वह हमारे लिये, हमारी वृत्तियोंको सब प्रकारसे हटाकर अपनेमें लगानेके लिये इतना अलौकिक और सुन्दर रूप धारण करते हैं। हमारी रुचिके अनुसार भगवान् रूप धारण करते हैं और भगवान् की रुचिके अनुसार हमको अपना रूप बनाना है। भगवान् का जैसा रूप हम चाहें ध्यान कर सकते हैं। वैराग्ययुत चाहें तो वनको जाते हुए भगवान् रामका ध्यान करें, राजकुमारका, राजेश्वरका चाहें तो वैसा ही ध्यान करें। भगवान् तो भक्तोंके अधीन हैं। भक्त जैसा स्वरूप समझते हैं भगवान् वैसे ही बन जाते हैं। भगवान् ने अनेक रूपोंमें अवतार लिया है। चाहे जिसका ध्यान करो, सभी भगवान् के असली रूप हैं, राम, कृष्ण, ऋषभदेव, सनकादि सभी भगवान् के स्वरूप हैं। सनकादिको हम भक्त मानें या भगवान् मानें एक ही बात है। परमात्मा स्वयं ही शिवरूपमें, सूर्यरूपमें प्रकट होते हैं।
वेदव्यासजीको हम भगवान् का अवतार मानें तो भी ठीक है कारक मानें तो भी ठीक है, ऋषि मानें वह भी ठीक है। भगवान् ने अधिकार दे दिया उसमें क्या कमी है। अपनी धारणामें जिसके ऊपर कोई हो ही नहीं, उसीको अपना इष्ट बनाना चाहिये। चाहे जिस रूपको बनाओ। निराकार, साकार, ज्योति, शंकर, विष्णु जिस किसीको इष्ट बनाओ उसको सर्वोपरि ही मानो। इष्टमें कमी देखना ही गलती है। यही आचार्योंकी पद्धति है। गुसाईंजीकी श्रीकृष्णसे बढ़कर कोई नहीं है। सारे रूप एक ही परमात्माके हैं। किसी भी स्वरूपकी उपासना भगवान् की ही है। परमात्माके लक्ष्यसे किसी भी नामसे अपनी भाषामें पुकारे भगवान् तो सब समझते हैं। गॉड़ (God), अल्ला, खुदा सब भगवान् के ही नाम हैं चाहे जिस स्वरूपको लक्ष्य बनाकर नाम लो सब परमात्माकी ही उपासना है। सारे ब्रह्माण्डको भगवान् का स्वरूप मानकर भगवान् की उपासना करें तो ऐसे भी कर सकते हैं। जिसके लिये जो मार्ग सुगम हो उसके लिये वही ठीक है। रामानुजाचार्य, शंकराचार्य सबकी पद्धति मुक्ति देनेवाली है। अच्छे सभी आचार्योंकी पद्धतिका आगे जाकर एक ही फल है। उपासककी भावनाके अनुसार भगवान् वही रूप धारण करके उसे दर्शन देते हैं। इसके बाद सबको परमात्माका ऐसा स्वरूप प्राप्त हो जाता है जो एक है। जिसके ये सब रूप हैं, व्यक्त, अव्यक्त, निराकार, साकार सब वही है। मनुष्यकी वाणीमें, बुद्धिमें, धारणामें जो बात आती है वह सबसे विलक्षण है। उसीको अमृत आनन्द, परमगति कहा गया है। गीतामें बताया है कि निराकारकी उपासना करनेवालेको भगवान् की प्राप्ति होती है-
ये त्वक्षरमनिर्देशयमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राग्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।।
(गीता १२।३-४)
मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सचिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभालसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।
नान्यं गुणेभ्यः कतारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।
(गीता १४।१९)
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघन स्वरूप मुझ परमात्मा तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।
इसी प्रकार साकारकी उपासना करनेवालेको ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्व्रह्मभूयाय कल्पते॥
(गीता १४।२६)
जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये योग्य बन जाता है।
सबका नतीजा आखिर एक है, यही एकता है। पहले जो स्थिति होती है वह अपनी धारणाके अनुसार होती है। उसके बाद फलरूप स्थिति होती है वह सब एक है। हमारा सबका लक्ष्य सर्वोपरि स्थितिकी प्राप्तिका है, मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। श्रीकृष्णके हजारों, लाखों उपासकोंमें भी उनका अलग-अलग लक्ष्य है। चाहे जिस रूपका ध्यान करें, है तो श्रीकृष्णका ही। मध्व सम्प्रदायवाले, वल्लभमतानुयायी, गौड़ी सब श्रीकृष्णकी अलग-अलग भावोंसे उपासना करते हैं प्राप्तव्य वस्तु तो एक ही है।
विधि मुखसे इयंता करके इदं बुद्धिसे उस वस्तुका वर्णन हो ही नहीं सकता। जो जिस प्रकार अपने मार्गमें चल रहा है वह ठीक ही है। जो आचार्य जो बात बतलाते हैं उसीके अनुसार मानकर साधन करना चाहिये। साधककी साधनाको, श्रद्धाको स्वयं भगवान् पूर्ण करेंगे। सबकी पूर्ति करनेका काम भगवान् का है। यह विश्वास रखना चाहिये। विषयी, प्रमादी, नास्तिक, ठग इनका संग नहीं करना चाहिये, इससे तो मरना ही अच्छा है। प्रमादी और नास्तिकसे जितनी हानि है उतनी विषयी, भोगीसे नहीं है। भोगी राजसी हैं। आसुरीमें अधिकांश तमोगुणी हैं। साधक सात्विक पुरुष है उसका संग लाभदायक है, सिद्धकी तो बात ही क्या, साधक भी उसी तीर्थका यात्री है, उसके सङ्गसे लाभ है। प्रमादी, नास्तिक तो ठग हैं, वे तो वनमें लूट लेंगे।
पारसको हमने कभी नहीं देखा। पारसकी आकृति पत्थरकी-सी सुनी है। हमारे यहाँ ठीकरोंमें पड़ा है। कीमत जाननेवाले पुरुषोंने कहा इस पारसके रहते हुए क्यों दरिद्रता भोग रहे हो, यदि हमें विश्वास हो जाय और वह पारस हो तो दरिद्रता तो तुरन्त ही मिट गयी। हमलोग ऐसे ही दरिद्र हैं। महात्मा लोग पारसको जाननेवाले हैं बस बता दिया और हमें विश्वास हो गया तो दरिद्रता खतम। एक दरिद्र पारस पत्थर द्वारा चटनी पीसनेका काम लेता था। महात्माने कहा यह पारस है। वह बोला नहीं ऐसी बात नहीं है चाहे आप हजार आदमीसे पूछ लें। महात्मा बोला लाख कहें तो भी मैं नहीं मानता। लोहा छुआकर देखो, बस लोहा छूते ही दृष्टि बदल गयी। हमलोग भी कहनेसे मानते नहीं हैं कोई उपरोक्त तरहसे करे तब मानें। पांडेजी पहले पहल स्वर्गाश्रममें मुझसे मिलने आये थे। पहले उन्होंने मुझसे ही बातचीत की बादमें मालूम पड़ा कि ये ही जयदयालजी हैं तो स्थिति बदल गयी। भगवान् में और उनके भक्तों में श्रद्धा करने के लिये भजन और सत्संग ही करना चाहिये, उसी से उनका प्रभाव जाना जाता है। भजनसे अन्त:करण शुद्ध होनेसे और सत्संग द्वारा गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातें सुननेसे श्रद्धा होती है। परमात्मामें श्रद्धाके लिये तथा भक्तों और महात्माओंमें श्रद्धा करनेके लिये महात्माओंके भक्तोंका सङ्ग करना चाहिये। उन्हींके द्वारा गुण, प्रभाव, रहस्य आदिकी बातें श्रवण करनी और कीर्तन-भजन करना चाहिये। सत्संग और भजन इन दो बातोंसे ही ईश्वरकी दयासे श्रद्धा और प्रेम होता है। श्रद्धा और प्रेमसे ही उनकी प्राप्ति होती है। सत्संग-भजनसे श्रद्धा और प्रेम होता है। जो कुछ भी भगवान् में प्रेम हो, थोड़ा बहुत जो देखनेमें आता है, वह इसीसे हुआ है। इसीको बढ़ाया जाय।
प्रश्न-एकान्तमें भजन करना बड़ा है या सत्संग।
उत्तर-एक आदमीने पूछा गूगा बड़ा है या भगवान्। बात तो यह है कि भगवान् ही बड़े हैं पर गूगासे भी डरना पड़ता है। है तो सत्संग ही बड़ा, भजन सत्संगसे ही होता है। भगवान् तो कहते हैं कि सत्संग करो और संत कहते हैं भजन करो, अपनी-अपनी जगह दोनों ही बड़े हैं। सत्संगसे ही भजन होता है। सत्संग ही कारण है, भजन कार्य है। सत्संग माता है, भजन पुत्र है। भजन कमाऊ है। भगवान् भजनसे ही मिलते हैं। दोनोंमें ज्यादा समय किसमें बितायें ? विचार करो भजनमें स्वतन्त्रता है, रोज दो घंटा माला फेरनी है तो फेर सकता है। सत्संग रोज करनी अपने वशकी बात नहीं है। सत्संगसे ही भजनमें रुचि बढ़ती है। बिना सत्संगके रुचि घटनेकी संभावना है। सत्संगमें भजन भी तो बन सकता है, दोनों ही काम हो जाते हैं। सत्संग भजनको खींच लाता है, परन्तु भजनसे सत्संग मिल ही जाय यह बात नहीं है। नारदजी जब ब्रह्मलोकमें जाकर भगवान् का गुण गाते हैं, तब सनकादि समाधि छोड़कर सुनने आते हैं। कहा भी है-
बिनु सत्संग न हरि कथा तेहिं बिनु मोह न भाग।
मोह गयें बिनु राम पद होय न दूढ़ अनुराग।।
बिना अनुरागके भगवान् नहीं मिलते। यह बात सिद्ध हुई कि भजनसे भी बढ़कर सत्संग है। युक्तियोंसे, प्रमाणोंसे, शास्त्रसे, प्रत्यक्ष सब तरहसे सत्संग ही भजनसे श्रेष्ठ है। दो घंटा एकान्तमें ध्यान करो और दो घंटा चुपचाप बैठकर महात्माके पास ध्यान करो, दोनोंको मिलाओ कितना अन्तर है। कीर्तन एक अकेला करता है और एक सौ आदमी शामिल होकर बड़े प्रेमसे करते हैं। एक-एकको १००-१०० गुना लाभ मिलता है। प्रत्यक्ष लाभ है। विवाह में सात्विक आदमीपर भी उन बरातियोंका असर पड़ जाता है, १०० बरात जाने पर सात्विक पुरुष भी तामसी बन जाता है। १०० शवयात्रामें जानेपर तामसी भी सात्विक बन जाता है। मनुष्यकी जो वृत्ति शवयात्रा में, सत्संगमें और अपने मृत्यु समयमें होती है, वैसी वृत्ति यदि सदा रहे तो उसके कल्याणमें कोई शंका नहीं है। भजन बढ़िया है सत्संगमें फिर जायें ही क्यों? सब घरपर ही भजन करें। पर गूगेके मंडपमें बैठकर गूगेको छोटा कैसे बतायें। भगवान् के भजनको छोटी चीज कैसे बताया जाय। भगवान् के राज्यमें भगवान् के भजनको छोटा कैसे बताया जाय, बड़ा तो है, सो है ही यह विनोद है, सात्त्विक विनोद है।
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- सत्संग की अमूल्य बातें