गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
भगवत्प्राप्तिके सरल उपाय
महात्माओंमें श्रद्धा और प्रेम होनेपर महात्माओंका आशीर्वाद और वर प्राप्त हो जाता है। श्रद्धा और प्रेम महात्माओंकी दयासे होते हैं। कृपा सबसे बढ़कर चीज है। ऐसी मान्यता होनेसे कृपा फलती है। ईश्वरकी दया महात्माओंकी दया एक ही बात है।
प्रश्न-महात्मा और भगवान् की दयामें विश्वास उत्तरोत्तर कैसे बढ़ता है?
उत्तर-भगवान् के विषयकी ११ बात मुख्य हैं। ११ पदार्थोंका ५ द्वारोंसे सेवन करे तो भगवान् के तत्व-रहस्यको जान जाता है। तत्वरहस्य जाननेसे स्वाभाविक ही श्रद्धा, प्रेम होता है। नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य, लीला, प्रेम, धाम, श्रद्धा, महिमा-ये ग्यारह बातें बुद्धिके द्वारा निश्चय करे। इस प्रकार करनेसे तत्व-रहस्य जान जाता है। यही सबसे बढ़कर उपाय है।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
(गीता १०।९)
निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चा के द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं। इसमें चार विशेषण हैं इस प्रकार करनेसे भगवान् की दया प्राप्त होती है।
भगवान् की दया प्राप्त करने की अनेक युक्तियाँ बतायी गयी हैं। किसी एक युक्तिसे भी मिल सकते हैं-
(१) हँस-हँसकर चाहे तो हॅस-हॅसकर मिल सकते हैं।
(२) रोना चाहे तो रो-रोकर प्राप्त कर सकते हैं।
(३) कभी रोना, कभी हँसना इससे भी प्राप्त कर सकते हैं।
भगवान् सभी तरह मिल सकते हैं। हमारे प्रभुकी अपार दया और प्रेम मानते हुए हर समय हँसते रहें। सर्वत्र भगवान् को देख-देखकर हम मुग्ध होते रहें-यह हँसनेका मार्ग है, भगवान् के विरहमें रोते रहें।
जौं करनी समुझे प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलपसत कोरी।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीनबन्धु अति मृदुल सुभाऊ।।
अपने अवगुणोंकी तरफ देखकर रोते रहें।
अहह धन्य लक्षिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।
बीतें अवधि रहहिं जों प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।
यह रोना भगवान् को बुलानेकी व्याकुलता है। गोपियाँ रोने लगीं, विरहावस्थामें मरणासन्न हो गयीं। भगवान् प्रकट हो गये। रोना नहीं आता है तो समझ लो कि हम भगवान् को दयालु नहीं मानते। दयालु होकर भी यदि सामथ्र्यवान् न हों तो पूरा काम नहीं बनता। यदि सामथ्र्यवान् होकर दया नहीं करता तो भी पूरा काम नहीं बनता।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५।२९)
मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।
यदि कोई अतिथि हमारे घर आये तो यही मानें कि भगवान् अतिथिरूपमें आये हैं। जो आदमी किसीको भी सुख पहुँचाता है वह भगवान् को ही पहुँचाता है। नामदेवजी कुत्तेके पीछे घी लेकर दौड़ते हैं, भगवान् प्रकट हो जाते हैं। राजा रन्तिदेवने चाण्डालको जल दिया, भगवान् प्रकट हो गये।
पत्र पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्चामि प्रयतात्मनः।।
(गीता ९।२६)
जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।
अम्बरीषने तुलसीपत्र भगवान् के अर्पण किया। अम्बरीषके द्वारा दुर्वासाजीको भोजन कराये बिना पारणकी बात जाननेपर दुर्वासाजीने अम्बरीषको मारनेके लिये कृत्या छोड़ी। भगवान् ने सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। दुर्वासाजीकी रक्षा अम्बरीषकी शरण जानेपर ही हुई। द्रौपदीसे शाकका एक पत्ता लेकर खाकर डकार ली सारे विश्वको तृप्त कर दिया। गजेन्द्रको तालाबमें एक पुष्प मिला बस अर्पण करते ही भगवान् प्रकट हो गये। भीलनीने बेर खिलाये। रन्तिदेवने जल दिया। भगवान् तो इससे भी सुगम बताते हैं।
यत्करोषि यदश्रासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।
(गीता ९।२७-२८)
हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। इस प्रकार जिसके समस्त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं-ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिद्रं विन्दति मानवः।।
(गीता १८।४६)
जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
सभी क्रिया भगवान् के लिये ही करो, सबको भगवान् समझकर अपने कर्मोंके द्वारा भगवान् की पूजा करो, यह भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग है। भगवान् को जो सारे लोकोंका महान् ईश्वर, क्षर, अक्षर सबसे उत्तम सर्वभूतहिते रताः जान लेता है उसकी पहचान यही है कि वह भगवान् को ही भजता है।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्रजति मां सर्वभावेन भारत।।
(गीता १५।१।९)
भगवान् हमारे परम मित्र हैं। यह बात समझमें आ जाय तो फिर कल्याणमें क्या देर है। हमारे ऊपर राजाकी दया है लाट साहबकी दया, दया ही नहीं पूरा प्रेम है फिर देखो कितना आनन्द, कितनी शान्ति होनी चाहिये। भगवान् की दयाको देखकर, सुनकर उनके दरवाजेसे भूखा कौन लौट सकता है। दयालुसे किसीका दु:ख नहीं देखा जाता। सामथ्र्यवान् दयालुको देखकर दु:खी आदमी रो पड़ते हैं। सामथ्र्य हो और दयालु न हो तब रोना नहीं आता। दोनों भिखारी हैं। भगवान् सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, सर्वाधार, परम दयालु, परमप्रेमी हैं। यह बात समझमें आते ही हम निर्भय और निश्चिन्त हो जाते हैं। जो कुछ हो रहा है प्रभु स्वयं ही कर रहे हैं करवा रहे हैं, प्रभु क्रीड़ा कर रहे हैं, यह क्रीड़ास्थल है। सारी क्रियामें प्रेम साक्षात् मूर्तिमान् होकर दीखता है, भक्तोंके लक्षणोंमें 'अद्वेष्टा, मैत्रः करुण एव च' बताया। जबतक सुहृदता नहीं है तबतक समझना चाहिये कि मैं भत नहीं हूँ। उस दयालुके सामने तो रोनेसे ही काम सिद्ध हो जाता है। भगवान् को परम दयालु समझकर उनके समक्ष तबतक रोते रहें जबतक वे प्रकट न हो जायें। न प्रकट हों तो रोते-रोते ही मर जायें। यह धारणा बहुत जल्दी भगवान् को मिलानेवाली है। अपने तो यही धारणा करनी है कि रोते-रोते ही मर जायेंगे।
राम बिरह सागर महें भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आई गयउ जनु पोत।।
उसी समय हनुमान् जी आ पहुँचे। पहले भगवान् के दूत आते हैं फिर भगवान् आते हैं। कहीं खुद भगवान् ही आ जाते हैं। करुणा भावसे रुदन करे तो विलम्ब होता ही नहीं। युधिष्ठिरको देवदूत कल्पित नरक में ले गये। उनके भाइयोंने उनसे वहीं रहनेको कहा। महाराजने निश्चय किया यहीं रहेंगे। दु:ख भोगना स्वीकार किया बस तुरन्त उलट गया। हम भी यदि ऐसा निश्चय कर लें तो जल्दी ही भगवान् प्रकट हो जायें। गौराङ्ग महाप्रभु विरहमें व्याकुल होकर रुदन करते थे। सुना जाता है उनकी कृपासे बहुतसे भक्तोंको भगवान् के दर्शन हो गये। प्रेमकी बात-हर समय हँसते-हँसते ही रहें, प्रत्यक्ष शान्ति और आनन्द है, फलमें और साधन काल दोनोंमें ही आनन्द है, रोना प्रिय लगे तो रोनेवाला मार्ग, हॅसना प्रिय लगे तो हॅसनेवाला मार्ग जो प्रिय लगे उसीका अनुसरण करें।
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- सत्संग की अमूल्य बातें