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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....


विलायतीहोने पर भी बम्बई के कटे-सिले कपड़े अच्छे अंग्रेज समाज में शोभा नहीं देगे, इस विचार से मैंने 'आर्मी और नेवी' के स्टोर में कपड़े सिलवाये।उन्नीस शिलिंग की (उस जमाने के लिहाज से तो यह कीमत बहुत ही कही जायेगी )'चिमनी' टोपी सिर पर पहनी। इतने से संतोष न हुआ तो बॉँण्ड स्ट्रीट, जहाँशौकिन लोगों के कपड़े सिलते थे, दस पौण्ड पर बती रख कर शाम की पोशाकसिलवायी। भोले और बादशाही दिलवाले बड़े भाई से मैंने दोनो जेबों में लटकनेलायक सोने की एक बढिया चेन मँगवायी और वह मिल भी गयी। बँधी-बँधाई टाईपहनना शिष्टाचार में शुमार न था, इसलिए टाई बाँधने की कला हस्तगत की। देशमें आइना हजामत के दिन ही देखने को मिलता था, पर यहाँ तो बड़े आइने केसामने खड़े रहकर ठीक से टाई बाँधने में और बालो में सीधी माँग निकालने मेंरोज लगभग दस मिनट तो बरबाद होते ही थे। बाल मुलायम नहीं थे, इसलिए उन्हें अच्छी तरह मुडें हुए रखने के लिए ब्रश (झाडू ही समझिये! ) के साथ रोजलड़ाई चलती थी। और टोपी पहनते तथा निकालने समय हाथ तो मानो माँग को सहेजने के लिए सिर पर पहुँच ही जाता था। और बीच-बीच में, समाज में बैठे-बैठे,माँग पर हाथ फिराकर बालों को व्यवस्थित रखने की एक और सभ्य क्रिया बराबर ही रहती थी।

पर इतनी टीमटाप ही काफी न थी। अकेली सभ्य पोशाक से सभ्य थोड़े ही बना जा सकता था? मैंने सभ्यता के दूसरे कई बाहरी गुण भी जानलिये थे और मैं उन्हें सीखना चाहता था। सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये।उसे फ्रेच अच्छी तरह जान लेनी चाहिये, क्योंकि फ्रेंच इंग्लैंड के पड़ोसीफ्रांस की भाषा थी, और यूरोप की राष्ट्रभाषा भी थी। और, मुझे यूरोप में घुमने की इच्छा थी। इसके अलावा, सभ्य पुरुष को लच्छेदार भाषण करना भी आनाचाहिये। मैंने नृत्य सिखने का निश्चय किया। एक सत्र में भरती हुआ। एक सत्रके करीब तीन पौण्ड जमा किये। कोई तीन हफ्तों में करीब छह सबक सीखे होगे।पैर ठीक से तालबद्ध पड़ते न थे। पियानो बजता था, पर क्या कह रहा हैं, कुछसमझ में न आता था। 'एक, दो, एक' चलता, पर उनके बीच का अन्तर तो बाजा हीबताता था, जो मेरे लिए अगम्य था।

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