जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....
मित्र समझ गये। चिढ़ कर पूछा, 'क्या हैं?'
मैंने धीरे से संकोचपूर्वक कहा, 'मैं जानना चाहता हूँ कि इसमे माँस हैं यानहीँ।'
'ऐसे गृह में यह जंगलीपन नहीं चल सकता। अगर तुम्हें अब भी किच-किच करनी हो तोतुम बाहर जाकर किसी छोटे से भोजन-गृह में खा लो और बाहर मेरी राह देखो।'
मैं इस प्रस्ताव से खुश होकर उठा और दूसरे भोजनलय की खोज में निकला। पास ही एकअन्नाहारवाला भोजन-गृह था। पर वह तो बन्द हो चुका था। मुझे समझ न पड़ा कि अब क्या करना चाहियें। मैं भूखा रहा। हम नाटक देखने गये। मित्र ने उक्तघटना के बारे में एक शब्द भी मुँह से न निकाला। मेरे पास तो कहने को था ही क्या?
लेकिन यह हमारे बीच का अन्तिम मित्र-युद्ध था। न हमारा सम्बन्ध टूटा, न उसमें कटुता आयी। उनके सारे प्रयत्नों के मूल में रहेंप्रेम को मैं पहचान सका था। इस कारण विचार और आचार की भिन्नता रहते हुए भीउनके प्रति मेरा आदर बढ़ गया। पर मैंने सोचा कि मुझे उनका डर दूर करनाचाहियें। मैंने निश्चय किया कि मैं जंगली नहीं रहूँगा। सभ्यता के लक्षणग्रहण करूँगा और दुसरे प्रकार के समाज में समरस होने योग्य बनकर अपनीअन्नाहार की अपनी विचित्रता को छिपा लूँगा।
इस 'सभ्यता' को सीखने के लिए अपनी सामर्थ्य से परे का और छिछला रास्तापकड़ा।
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