सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गई। लकड़ी
सँभालता हुआ बोला-साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी धनिया ! इसके पहले
ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया-अच्छा रहने दो, मत अशुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई
अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी कन्धे पर लाठी रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर ख़ड़ी उसे देर तक
देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाए हुए ह्रदय में
आतंकमय कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूर्ण तप और
व्रत से अपनी पति को अभय-दान दे रही थी। उसके अन्तःकरण से जैसे आशीर्वादों
का ब्यूह-सा निकलकर होरी को अपने अन्दर छिपाये लेता था। विपन्नता के इस
अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही
थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, मानो झटका देकर उसके
हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा, बल्कि यथार्थ के निकट होने के
कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को दुःख होता
है, वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है ?
होरी कदम बढ़ाये चला जाता था। पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती
हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा-भगवान् कहीं गौ से बरखा कर दें और
डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देशी गायें न दूध दें, न
उनके बछवे ही किसी के काम हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं,
वह पछाँईं गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पांच सेर दूध
होगा। गोबर के लिए तरस-तरस कर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो
फिर कब खायेगा ? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाय।
बछवे भी
अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोईं न होगी। फिर, गऊ से ही द्वार की
सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जायँ तो क्या कहना ! न जाने कब यह
साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा !
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