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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...

कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थाई जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों ? इस परिस्थिति में उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था, औऱ दो-चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था।

उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिए। होरी ने उसकी ओर आँखें तेरकर कहा-क्या ससुराल जाना है, जो पाँचों पोसाक लायी है ? ससुराल में भी तो जवान साली-सरहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले पिचके हुए चेहरे पर मुस्कुराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा-ऐसे ही तो बड़ी सजीले जवान हो कि साली-सरहज तुम्हें देखकर रीझ जायँगी।
होरी फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा-तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया ? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
‘जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे ! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं औऱ भी सूखी जाती हूँ कि भगवान यह बुढ़ापा कैसे कटेगा ? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे?’

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