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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....

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डॉक्टर महेता सोमवार को मुझसे मिलने विक्टोरिया होटल पहुँचे। वहाँ उन्हें हमारानया पता मिला, इससे वे नयी जगह आकर मिले। मेरी मूर्खता के कारण जहाज में मुझे दाद हो गयी थी। जहाज में खारे पानी से नहाना होता था। उसमें साबुनघुलता था। लेकिन मैंने तो साबुन का उपयोग करने में सभ्यता समझी। इससे शरीरसाफ होने के बदले चीकट हो गया। उससे दाद हो गयी। डॉक्टर को दिखाया।उन्होंने एसेटिक एसिड दी। इस दवाने मुझे रुलाया। डॉक्टर महेता ने हमारेकमरे वगैरा देखे और सिर हिलाया, 'यह जगह काम की नहीं। इस देश में आकरपढ़ने की अपेक्षा यहाँ के जीवन और रीतिृरिवाज का अनुभव प्राप्त करना हीअधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसके लिए किसी परिवार में रहना जरुरी हैं। पर अभीतो मैंने सोचा है कि तुम्हें कुछ तालीम मिल सके, इसके लिए मेरे मित्र केघर रहो। मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊँगा।'

मैंने आभारपूर्वक उनका सुझाव मान लिया। मैं मित्र के घर पहुँचा। उनके स्वागत -सत्कार में कोई कमीनहीं थी। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा, अंग्रेजी रीति-रिवाज सिखाये, यह कह सकता हूँ कि अंग्रेजी में थोड़ी बातचीत करने की आदत उन्हींने डलवाई।

मेरे भोजन का प्रश्न बहुत विकट हो गया। बिना नमक और मसालोंवाली साग-सब्जी रुचती नहीं थी। घर की मालकिन मेरे लिए कुछ बनावे तोक्या बनाये? सवेरे तो ओटमील (जई का आटा) की लपसी बनती। उससे पेट कुछ भर जाता। पर दोपहर और शाम को मैं हमेशा भूखा रहता। मित्र मुझे रोज माँस खानेके लिए समझाते। मैं प्रतिज्ञा की आड़ लेकर चुप हो जाता। उनकी दलीलों का जवाब देना मेरे बस का न था। दोपहर को सिर्फ रोटी, पत्तो-वाली एक भाजी औरमुरब्बे पर गुजर करता था। यही खुराक शाम के लिए भी थी। मैं देखता था कि रोटी के तो दो-तीन टुकड़े लेने की रीत हैं। इससे अधिक माँगते शरम लगती थी।मुझे डटकर खाने की आदत थी। भूख तेज थी और खूब खुराक चाहती थी।

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