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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6042
आईएसबीएन :9788170287285

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प्रस्तुत है महात्मा गाँधी की आत्मकथा ....


फिरपिताजी के पास जैन धर्माचार्यों में से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे।पिताजी के साथ धर्म और व्यवहार की बातें किया करते थे। इसके सिवा, पिताजीके मुसलमान और पारसी मित्र थे। वे अपने-अपने धर्म की चर्चा करते और पिताजीउनकी बातें सम्मान पूर्वक सुना करते थे। 'नर्स' होने के कारण ऐसी चर्चा केसमय मैं अक्सर हाजिर रहता था। इस सारे वातावरण का प्रभाव मुझ पर पड़ा किमुझ में सब धर्मों के लिए समान भाव पैदा हो गया।

एक ईसाई धर्म अपवादरुप था। उसके प्रति कुछ अरुचि थी। उन दिनों कुछ ईसाई हाईस्कूल केकोने पर खड़े होकर व्याख्यान दिया करते थे। वे हिन्दू देवताओ की और हिन्दू धर्म को मानने वालो की बुराई करते थे। मुझे यह असह्य मालूम हुआ। मैं एकाधबार ही व्याख्यान सुनने के लिए खड़ा रहा होऊँगा। दूसरी बार फिर वहाँ खड़ेरहने की इच्छा ही न हुई। उन्ही दिनो एक प्रसिद्ध हिन्दू के ईसाई बनने कीबात सुनी। गाँव में चर्चा थी कि उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा देते समयगोमाँस खिलाया गया और शराब पिलायी गयी। उनकी पोशाक भी बदल दी गयी औऱ ईसाईबनने के बाद वे भाई कोट-पतलून और अंग्रेजी टोपी पहनने लगे। इन बातों सेमुझे पीड़ा पहुँची। जिस धर्म के कारण गोमाँस खाना पड़े, शराब पीनी पड़े औरअपनी पोशाक बदलनी पड़े, उसे धर्म कैसे कहा जाय? मेरे मन ने यह दलील की।फिस यह भी सुननें में आया कि जो भाई ईसाई बने थे, उन्होंने अपने पूर्वजोंके धर्म की, रीति-रिवाजों और देश की निन्दा करना शुरू कर दिया था। इन सबबातों से मेरे मन में ईसाई धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी।

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