हास्य-व्यंग्य >> हीरक जयन्ती हीरक जयन्तीनागार्जुन
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कविवर मृगांक ने सोचा—बारह पाँचे साठ सौ रुपये। कम नहीं होते हैं साठ सौ रुपये। सालभर में इतनी रकम तो दस उपन्यास भी नहीं खींच सकते !
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