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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...

सहसा उसने देखा, भोला अपनी गायें इसी तरफ आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गायें बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देखकर ललचा गया। अगर भोला वह आगे वाली गाय उसे दे तो क्या कहना ! रुपये आगे-पीछे देता रहेगा। वह जानता था, घर में रुपये नहीं हैं। अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका, बिसेसर साह का भी देना बाकी है, जिस पर आने रुपये का सूद चढ़ रहा है ; लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता जो तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आन्दोलित कर रही थी, उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जाकर बोला—राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग हैं ? सुना है अबकी मेले से नयी गायें लाये हो?

भोला ने रुखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी—हाँ, दो बछियें और दो गायें लाया। पहले वाली गायें सब सूख गई थीं। बन्धी पर दूध न पहुँचे तो गुजर कैसे हो ?
होरी ने आगेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ रखकर कहा-दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली ?

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