भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (मन-ही-मन) प्रियंवदा ने अपनी सखी शकुन्तला से बड़ी ही प्रिय और
सच्ची बात कही हैं।
वास्तव में-
इसके लाल-लाल होंठ ऐसे लगते हैं मानो लता की कोंपलें हों। दोनों भुजाएं
कोमल शाखाएं जैसी जान पड़ती हैं। और इसके अंगों में जो नया यौवन खिला हुआ
है वह तो इस प्रकार लुभाता है कि जिस प्रकार सुन्दर पुष्प।
अनसूया : शकुन्तला! यह वही नई चमेली है न, जिसने आम के वृक्ष से स्वयंवर
कर लिया है। तूने इसका नाम 'वन ज्योत्स्ना' रख दिया था। इसे तो भूली ही जा
रही हो?
शकुन्तला : वाह! ऐसा कैसे हो सकता है! जिस दिन मैं इसको भूलूंगी उस दिन
स्वयं को ही नहीं भूल जाऊंगी?
[लता के पास जाकर उसको देखती है।]
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